प्रतिकूल समय में धर्म कैसे धारण करें?

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शंका

जिनवाणी हमें सिखाती है कि जब विपरीत परिस्थितियाँ आती हैं या पाप कर्म का उदय होता है, तो हमें अपने आप को धर्म को समर्पित कर देना चाहिए। लेकिन अनुभव में यह भी देखा जाता है कि जब हमारे पुण्य का उदय होता है और जब हमारा मन शान्त होता है तब तो हम पूजन भी बड़े मन से करते हैं लेकिन जब परिस्थितियाँ विपरीत होती है और मन अशांत होता है, तो पूजन में भी मन नहीं लगता। इसका क्या उपाय है कि हम ऐसी परिस्थिति में अपने आप को धर्म में बेहतर तरीके से समर्पित कर सकें?

समाधान

दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय, जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय। प्रतिकूल परिस्थितियाँ पाप कर्म के निमित्त से उत्पन्न होती हैं और प्राय: पाप कर्म के निमित्त में हमारी बुद्धि भी विकृत हो जाती है और आदमी उल्टा सोचता है लेकिन ऐसी स्थिति में यदि हमारी धर्म निष्ठा गहरी हो तो व्यक्ति बहुत अच्छे-अच्छे से धर्म को धारण कर सकता है और इसी में धर्मात्मा की सही पहचान या परख होती है। महापुरुषों के जीवन चरित्र को हम पलट कर देखें तो हम पाएँगे कि जीवन के विषमतम परिस्थितियों में भी उन्होंने अपनी स्थिरता नहीं खोई, जीवन का असली मज़ा विसंगति में संगति बनाना और इसके लिए आपको अभ्यास करना होगा। विपरीत परिस्थितियों में अपनी स्थिरता बनाए रखने के लिए अनुकूल स्थितियों में आपको अभ्यास बनाना होगा। 

कुछ लोगों की उदात्त दृष्टि ऐसी होती है, मेरे सम्पर्क में एक बड़े उद्यमी हैं, उनके पास दो-दो ऑडी कार है, उनका नाम बड़े संपन्न व्यक्तियों में शुमार हैं, वे अपने बच्चे को पैदल स्कूल की बस तक छोड़ने जाते हैं, कोई गाड़ी नहीं और एसी (AC) का प्रयोग कभी नहीं करते। चर्चा में मैंने उनसे पूछा कि आखिर क्या बात है? तो बोले ‘महाराज जी आज मेरे पास जितनी संपन्नता है, मेरे पिता के पास वैसी संपन्नता और साधन नहीं थे। अनुकूल संयोगों के होने के कारण आज मेरे पास जो संपन्नता है, कल मेरे बेटे के पास वह संपन्नता या साधन रहे या न रहे, इसका कोई भरोसा नहीं, कहीं समय बदल जाए और बेटे की स्थिति खराब हो जाए तो मेरा बेटा परिस्थितियों से हारे नहीं इसलिए मैं आज से उसे परिस्थियों को सहने की सामर्थ्य पैदा करता हूँ’- यह दृष्टि है। जब तुम्हारे पास अनुकूल स्थितियाँ हो तो चला करके तुम उन का(प्रतिकूल परिस्थितियों) का अभ्यास करो। मुनियों के लिए कहा गया है कि ‘अपने मार्ग में स्थिरता बनाए रखना चाहते हो तो जानबूझकर परिषह सहो।’ कष्टों को सहने का अभ्यास रखने वाले व्यक्ति विपत्तियों में विचलित नहीं होते और सुविधा भोगी, आराम तलबी जीव थोड़ी सी परेशानी में भी पस्त हो जाते हैं। तय आपको करना है पस्त होना है, त्रस्त होना है या मस्त रहना है, रास्ता आप चुनलो।

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