जैन धर्मानुसार परमात्मा, इश्वर में अन्तर और आत्मा से क्या सम्बन्ध है?
जैन धर्म के अनुसार “अप्पा सो परमप्पा“, आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा से भिन्न किसी परमात्मा की कोई मान्यता जैन धर्म नहीं है। जैन धर्म में ऐसे ईश्वर या उस जैसी किसी अन्य शक्ति की कोई मान्यता नहीं जो हमारा संहार या सम्पोषण करता हो, जो हमें दंडित या पुरस्कृत करता हो, जो हमारे पतन और उत्थान में निमित्त हो।
धर्म के अनुसार हर आत्मा अपने उत्थान, पतन का मालिक स्वयं है और वह अपनी अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों के कारण होता है। आत्मा जब तक राग-द्वेष से मलिन होता है, तब तक आत्मा कहलाता है और जब राग-द्वेष के विकार को नष्ट कर देता है, तो परमात्मा कहलाता है। यही परमात्मा अवस्था है, यही तीर्थंकर अवस्था है और यही ईश्वरत्व है। इंसान ही ईश्वर बन सकता है। हर प्राणी के भीतर वही ईश्वर शक्ति है जिसकी अभिव्यक्ति कर्म निर्मूलन के बाद होती है, अपने पापों के क्षय के बाद होती है और यह जब आत्मा में विशुद्धि प्रकट होती है, तभी होती है। इसलिए हमारे आत्मा, परमात्मा को अरिहन्त की संज्ञा दी गई। मतलब जो अपने कर्म रूपी ‘अरि’ यानी शत्रु का हनन कर दे, वह अरिहन्त कहलाता है।
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