पाँच विवाह जैन धर्म शास्त्र में मना किए गए हैं: विधवा विवाह, तलाक विवाह, अन्तरजातीय विवाह, कोर्ट में विवाह और विजातीय विवाह! क्या ये सही है?
विवाह की हमारे यहाँ जो व्यवस्था है उसके अनुसार में स्त्रियों के पुर्नविवाह का तो सर्वथा निषेध है। चाहे वो विधवा विवाह हो या परित्यक्ता विवाह। ये नहीं होना चाहिए। यदि किसी के साथ ऐसी स्थिति बनी है उसे संयम का रास्ता अपनाना चाहिए। धर्मसम्मत मार्ग तो यही है।
गन्धर्व विवाह, कोर्ट मैरिज और अन्तरजाति विवाह- आगम में विवाह के अनेक भेद बताये गये हैं, उसमें धर्म विवाह को सर्वसम्मत बताया गया है। सात-आठ प्रकार के विवाह के भेद बताये हैं लेकिन ये गन्धर्व विवाह आदि जितने भी विवाह हैं ये विवाह प्रशंसनीय नहीं माने जाते। जिसमें माँ-बाप की सहमति नहीं हो चुपचाप आपस में करें, ये आसुरी विवाह की श्रेणी में आते हैं। ऐसे विवाह को धर्म सम्मत नहीं माना गया है। अन्तरजातीय विवाह का जहाँ तक सवाल है, उसमें भी दो भेद हैं, जैसे जितने भी जैन हैं जैनों में जितनी भी उपजातियाँ हैं इनको भी कुछ लोग अन्तरजातीय विवाह मानते हैं। शास्त्र की दृष्टि से इसका कहीं निषेध नहीं है। शास्त्र में ऐसा लिखा है कि
शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या तां स्वां च नैगमः।
व्हेत स्त्रां में च राजन्यः स्त्रां द्विजन्मा क्क च्चि ता:।।
वर्णों की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए भगवान् ऋषभदेव ने ये नियम बनाये कि शूद्र, शूद्र कन्या के साथ विवाह करें, वैश्य, वैश्य व शूद्र कन्याओं के साथ, क्षत्रिय, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र कन्याओं के साथ, तथा ब्राह्मण चारों वर्णों की कन्याओं के साथ विवाह करें।
आदि पुराण को यदि आप पढ़ें तो वहाँ वर्ण व्यवस्था की बात कहते हुए लिखा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों की कन्याएँ ले सकता है। देगा तो ब्राह्मण को ही, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तीनों की कन्याएँ लेगा, देगा तो क्षत्रिय और ब्राह्मण को। वैश्य यदि लेगा तो वैश्य और शूद्र की कन्या को और यदि देगा तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को और शूद्र-शूद्र की ही कन्या लेगा, दे किसी को भी सकता है। ये हमारे आदि पुराण का उल्लेख है भरत चक्रवर्ती की बत्तीस हजार रानियाँ मलेक्षखण्डी थीं। जाति की जहाँ तक बात है, ये जितनी भी जातियाँ आई हैं ये भी जाति शाश्वत नहीं हैं। पुराणों में लिखा है कि एक मात्र मानवजाति ही जाति है, और कोई जाति नहीं और हम किस जाति की बात करें, किसकी जाति शाश्वत है? आप खण्डेलवाल जाति के इतिहास को पलट कर देखो, क्या ये सब एक खून के कभी रहे हैं? जितने भी खण्डेलवाल हैं क्या अनादि से खण्डेलवाल थे? राजा खण्डेलगिरि ने जब जैन धर्म में दीक्षा ली तो उस काल में उसकी चौरासी रियासत के जितने लोग थे वे सब जैन हो गये। और सबको अलग-अलग अपने-अपने गाँव के हिसाब से उनको वह गोत्र दे दिया गया। कहा जाता है अग्रोहा से अग्रवाल उत्पन्न हुए, खण्डेला से खण्डेलवाल उत्पन्न हुए, पखार जो हैं वे गुजरात से आये, और गोलापूर्व गोल्लागढ़ से हुए। ये अलग-अलग क्षेत्रों से उत्पन्न हुए समाज हैं। बहुत सारी समाज है।
जातियों की बात करूँ दो भाईयों में बँटवारा हुआ, एक को खारा कुँआ मिला एक को मीठा कुँआ। दो जाति बन गई खरउआ और मिठउआ। अभी ग्वालियर, मुरैना और भिण्ड के आसपास में खरउआ समाज के लोग मिलते हैं। मिठउआ के बहुत थोड़े बचे हैं। सब जातियों की दीवारें हटाने का वक्त आ गया है। समाज से इसको बहुत नुकसान हुआ है। इस जातिवाद का दुष्परिणाम क्या आया, बहुत सारे जैनी भाई अजैन हो गये। मैंने अकेले कलकत्ता में देखा कि दो हजार से ज़्यादा अग्रवाल जैन परिवार, उनमें वे भी जिन्होंने बेलगछिया जैसे विशाल मन्दिर का निर्माण करवाया था, अजैन हो गए। एक व्यक्ति हुलासीराम सेठ ने इतनी बड़ी चीज अकेले ने बनाई इतने बड़े महानगर में उस घर में आज णमोकार बोलने वाला नहीं है। क्यों? अग्रवाल का जैन से सम्बन्ध नहीं होगा, खण्डेलवाल से सम्बन्ध नहीं होगा तो लोगों ने एक गलत धारणा बनाई। देहाश्रित जाति को मूल्य दे दिया गया आत्माश्रित धर्म को गौण कर दिया गया। विधर्म विवाह की सम्मति दे दी गई, पर विजाति विवाह की सम्मति नहीं दी गई।
बन्धुओं! मैं तो यही कहूँगा विजाति में शादी कर लेना, पर विधर्म में कभी मत करना क्योंकि विधर्म में शादी करने का ही नतीजा है कि पारसी धर्म भी विलुप्त हा रहा है। पारसियों की हालत ये हो गई है कि अल्पसंख्यक आयोग को उन्हें दो सन्तान से अधिक सन्तान की उत्पत्ति करने की छूट देने की अनुशंसा करनी पड़ी। तो इस तरह से इनको समझने की जरूरत है।
आज हम समाज में ही उपजातियों में विवाह सम्बन्ध का निषेध करें? मेरे पास समाज के एक बड़े नेता आये थे। मैंने सामने एक सवाल किया कि ‘देखिए! आज हमारे समाज में बहुत सारी जातियाँ हैं चौरासी जातियाँ है, उसमें से कुछ जातियाँ ऐसी है जिनकी संख्या दस-सात हजार है। बुढेलवाल, गंगवाल, बघेलवाल, पल्लिवाल आदि-आदि बहुत सारी जातियाँ हैं। पहले अनेक सन्तान होते थे तो बेटी व्यवहार हो जाता था। अब एक या दो बच्चे होते हैं अब वो जिनकी समाज में ही संख्या बहुत सीमित है वो कहाँ शादी करें? अनब्याहे बैठेगा क्या? उनके लिए क्या उपाय है? वो तुम्हारा कोई उपदेश नहीं सुनेगा वो कहेगा कि हमको पहले अपनी गृहस्थी चलाने दो। इसलिए जातिवाद का भाव कभी भी मन में नहीं रखना चाहिए। आचार्य रविषेण ने पद्मपुराण में लिखा,
न जाति गर्हिता कश्चिद् गुणा कल्याण कारकं
व्रतस्थमपि चाण्डालम् तंदेवाः ब्राह्ममणंविदुः।
कोई जाति निन्दनीय नहीं है, गुण कल्याणकारी है, व्रत स्थित चाण्डाल को भी देवों ने ब्राह्मण कहा है। ब्राह्मण वही है जो व्रती हो, तो ये सब चीजें हमारे यहाँ थी।
वर्ण व्यवस्था की व्यवस्था थी, उसको लोगों ने बदलकर के पलट दिया इस विषय में जिनको विशेष रूप से जानना और देखना है वो पण्डित फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री की एक कृति भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है “वर्ण जाति और धर्म’ बहुत पठनीय और मनननीय कृति है, एक बार जरूर पढ़ना।
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