मेरा दीक्षा लेने का भाव है; पर जब भी इस पथ के बारे में विचार करती हूँ, मन करता है कि इतनी कठिन चर्या का पालन शायद मैं नहीं कर पाऊँगी। मुझे वैराग्य के पथ पर चलने का भाव हो इसके लिए मैं क्या करूं?
जो कठिनाई से डरता है वो कभी आगे नहीं बढ़ सकता है। कठिनाई का सामना करने के लिए तैयार होना चाहिए और आगे बढ़ना चाहिए और इसके लिए गुरू कृपा की एक बहुत बड़ी भूमिका रहती हैं।
अपने जीवन की एक बात बता रहा हूँ जब मैं क्षुल्लक था, पपौरा जी की बात है। मेरे मन में ऐसा आने लगा कि शायद मैं मुनि न बन जाऊँ, सन् १९८६ की बात है। ‘मुनि नहीं बन पाऊँगा’ ऐसा एक-डेढ़ महीने तक मुझे आभास लगता रहा। एक दिन मेरे मन में बड़ी आकुलता हुई और मैं गुरू चरणों में गया और गुरूदेव से कहा कि “महाराज श्री! मुझे आज कल ऐसा लगता है कि मैं मुनि नहीं बन पाऊँगा मैं क्या करूँ?” देखो, गुरू कृपा का क्या फल होता है! उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा- चिन्ता मत करो! सोता तो मैं उनके ही पास था, बोले कि ‘नजदीक सोया करो!’ बस उनकी पाटी के बाजू में मैं सोने लगा। जब तक मैं संघ में रहा, उनके चरणों में, पादमूल में ही मैंने विश्राम किया। आपको क्या बताऊँ! उस दिन से वे विकल्प ही खत्म हो गये। उनकी कृपा ऐसी बरसी कि १९८६ में आशीर्वाद लिया और १९८८ में मुनि बन गया।
अगर दीक्षा के भाव हैं तो गुरूओं से सम्पर्क बनाकर रखो उनसे प्रेरणा लो आपको ये लाभ ज़रूर प्राप्त होगा।
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