क्या भक्ति-पूजा-संयम कर्मकाण्ड और स्वाध्याय ही सही धर्म है?

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शंका

आज-कल कुछ लोग भक्ति, पूजा, व्रत, संयम आदि को कर्मकाण्ड समझते हैं। बस स्वाध्याय को ही धर्म समझा जाता है। क्या ये सही है?

समाधान

भक्ति, पूजा, व्रत व उपवास को कर्मकाण्ड समझते हो और स्वाध्याय को धर्म समझते हो तो स्वाध्याय भी एक कर्मकाण्ड ही तो है। 

जो ऊपर की क्रिया है उसका नाम कर्म काण्ड है। स्वाध्याय प्रवृत्ति है या निवृत्ति? प्रवृत्ति मात्र कर्म काण्ड है। 

पहली बात तो मैं आप सब से ये कहूँ कि आज कल ये शब्द रूढ़ हो गया है कि कोई भी बात हो जाये तो ‘ये कर्मकाण्ड है।’ व्रत, उपवास, पूजा पाठ आदि को कोरा कर्मकाण्ड कहने की भूल जीवन में मत करना। ये श्रावकों की कल्याण कारिणी क्रियाएँ है। श्रावक का यही धर्म है। ये कर्मकाण्ड नहीं, ये कर्म के जड़ उखाड़ने की क्रिया है। आपके पास कर्म काटने का दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। 

आचार्य वीरसेन महाराज से किसी ने पूछा कि ‘महाराज व्रत किसे कहते हैं?’ तो उन्होंने उत्तर दिया कि- ‘प्रति समय असंख्यात गुण श्रेणी रूप निर्जरा के हेतु का नाम व्रत है।’ जो पल-पल असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा कर रहा है उसको कर्म काण्ड कहें, इससे बड़ा अन्याय क्या होगा? आचार्य कहते हैं कि ‘जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से पूर्व संचित कर्म का क्षय होता है।’ और आचार्य वीरसेन महाराज कहते हैं कि ‘भक्ति व पूजा तो दूर की बात जिनेन्द्र भगवान के दर्शन से, वंदन से, पूजन से व नमस्कार से बहुत कर्म प्रदेशों की निर्जरा होती है।’ तो जो निर्जरा का हेतु है उस को केवल कर्म कह कर उसका उपहास करना आगम का अपलाप करना है। ऐसा कार्य कभी मत करना। जो व्यक्ति व्रत, उपवास आदि धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति उपेक्षा का भाव रखते है वे व्यक्ति सम्यक् दृष्टि नहीं हो सकते हैं। 

आतम हित हेतु वीतराग ज्ञान ते लखे। 

उनकी परिणति आप को कष्ट देने की होती है। पर जो व्यक्ति क्रियाओं में ही रूढ़ हैं, आत्मा से उनका सम्बन्ध नहीं वे भी अज्ञान में जी रहे है। पूजा-पाठ आदि धार्मिक क्रियायें तुम्हारे जीवन के रुपांतरण की प्रक्रिया बन सकती हैं, बशर्ते तुम्हारे अन्दर आध्यात्मिक जागरण हो। केवल रूटीन की तरह ये क्रियाएँ करो तो चाहे पूजा-पाठ करो, चाहे व्रत व उपवास करो, चाहे स्वाध्याय भी क्यों न करो; सब कर्म काण्ड है। 

आचार्य कुन्द-कुन्द ने किसी को नहीं छोड़ा, उन्होंने कहा कि अज्ञानता के साथ किया गया तप, ‘बालतप’ है, अज्ञानता के साथ पालन किया गया व्रत ‘बालव्रत’ है, सांसारिक भोग आकांक्षा के लिए अर्जित किया गया ज्ञान श्रुत ‘बालश्रुत’ है। तीनों को तो कर्मकाण्ड बोल दिया उन्होंने! तो धर्म आराधना आत्मस्पर्शी हो तभी सार्थक है। इसलिए आत्मस्पर्शी आराधना करो। बाहर के क्रिया काण्डों में मत उलझो। 

आचार्य गुरूदेव कुण्डलपुर में थे। पण्डित जगत मोहन लाल सिद्धान्त शास्त्री ने अमृतचंद्र सूरी के जो समयसार के कलश थे उन पर अपना एक भाष्य लिखा था जो “अध्यात्म अमृत कलश” के नाम से प्रकाशित हुआ। आचार्य गुरूदेव के समक्ष उसकी वाचना हो रही थी। पंडित फूलचंद्र सिद्धान्त शास्त्री, पंडित जगत मोहन लाल सिद्धान्त शास्त्री, पंडित कैलासचंद्र सिद्धान्त शास्त्री और पंडित पन्नालाल साहित्याचार्य, चारों गुरू चरणों में बैठे थे। आचार्य महाराज जी का जैसे ही सामायिक का समय हुआ वे दिग्वंदना के आवर्त के लिए खड़े हो गये तो पंडित फूलचंद्र जी ने एक टिप्पणी की कि ‘महाराज जी! भाव सामायिक छोड़ कर आप द्रव्य सामायिक में क्यों जा रहे हैं? ये स्वाध्याय चल रहा है, ये भाव सामायिक है। इसको छोड़कर आप द्रव्य सामायिक में क्यों जा रहे हैं?’ तो गुरूदेव ने कहा कि ‘पण्डितजी! जब भी केवल ज्ञान होगा तो तुम्हारी इस भाव सामायिक से नहीं होगा मेरी इस द्रव्य सामायिक की मुद्रा में होगा। ग्रन्थ खोलकर के बैठोगे तो केवलज्ञान नहीं होगा, निग्रंथ होकर के बैठोगे तो केवलज्ञान होगा।’ इसलिए धार्मिक क्रियाओं का कभी उपहास मत करना। धार्मिक व्यक्तियों का कभी मज़ाक मत उड़ाना। जितना बन सके धर्म की क्रिया हो लेकिन होश पूर्वक, विवेक के साथ, आत्म जाग्रति के साथ, तभी तुम्हारा कल्याण होगा। और कोई रास्ता नहीं है।

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