क्या मुनि-महाराज राग, हास्य परिग्रह आदि से परे हैं?

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शंका

मुनियों का अन्तरंग परिग्रह का त्याग होता है। परन्तु हास्य अन्तरंग परिग्रह में आता है। आचार्य श्री की जयमाला में एक पंक्ति आती है कि “मन्द-मन्द सदा मुस्कान चेहरे पर बिखरी रहती है।” मुनि महाराज हास्य और मुस्कुराहट दोनों के बीच में कैसे सामंजस्य बिठाते हैं?

समाधान

इसे बहुत गहराई से समझने की आवश्यकता है। 

अन्तर चतुर्दश भेद बाहिर, संग दशधा तैं टलैं।

यह बात किस सन्दर्भ में कही गई है इसे समझें। बहिरंग परिग्रह तो सब जानते हैं, अन्तरंग परिग्रह में आता है-मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य आदि नौ कषाय और क्रोध, मान, माया, लोभ। यदि देखो तो इस दृष्टि से मुनि महाराज के अन्दर हास्य आदि नौ कषाय और क्रोध आदि कषाय व्यक्त रूप में होते हैं। वेद नौ कषाय का अव्यक्त उदय छठे गुणस्थान तक होता है, बल्कि व्यक्त भी होता है, अव्यक्त तो नवें गुणस्थान तक होता है। इस हिसाब से देखा जाए तो, कोई भी मुनि महाराज आज मुनि महाराज होंगे ही नहीं, क्योंकि परिग्रह है। और यह परिग्रह नवें और दसवें गुणस्थान तक हो जायेगा। दसवें गुणस्थान तक परिग्रह संज्ञा है। नवें गुणस्थान तक में मैथम संज्ञा है। इसे समझिये, जब परिग्रह नहीं तो परिग्रह संज्ञा कैसे? यह जो चर्चा है वह सामान्य कथन है। यहाँ अनन्तानुबन्धी जैसे वेद का उदय, अनन्तानुबन्धी के साथ रहने वाले हास्य आदि का उदय ना हो। अपनी भूमिका के अनुरूप कषाय सबकी होती है। साधु बनने का मतलब निष्कषाय होना नहीं; निष्कषायता को प्राप्त करने के मार्ग पर चलना है। अभी वह साधक है, सिद्ध नहीं हुआ? 

यथार्थतः देखा जाए तो परम निर्ग्रन्थ ग्यारहवें गुणस्थान से पहले कोई नहीं होते। जब तक मोहनीय कर्म का सद्भाव है, यह ग्रन्थ है, मोहनीय कर्म के क्षय के बाद या मोहनीय कर्म के उपशम के बाद ही निर्ग्रन्थता प्रकट होती है। इसलिए, जब इन परिग्रहों की बात आए, तो इन सब बातों को रेखांकित करना ठीक बात नहीं है।

एक बार एक युवक ने मुझसे कहा, कि “महाराज! वर्तमान में कोई मुनि महाराज हो नहीं सकते क्योंकि मुनि-महाराज बाहरी और भीतरी परिग्रह से रहित होते हैं और अभ्यन्तर परिग्रह में हास्य है। जो मुनि महाराज हँसते हैं वे सच्चे मुनि महाराज नहीं है”। उन्हें नहीं पता कि प्रसन्नता तो हर साधु का स्वभाव है। राग और हास्य आदि से रहित कोई साधु नहीं रहते। छठे-सातवें गुणस्थान में राग भाव की अभिव्यक्ति दिखती है और वो उस रूप में होते हैं। मुनि महाराज तुम्हें हाथ उठा करके आशीर्वाद भी देते हैं तो तुम्हारे प्रति राग के कारण देते हैं। यह बात अलग है कि उनका राग किसी भौतिक अपेक्षा को लेकर नहीं होता, उनका राग धर्म भाव से जुड़ा होता है। लेकिन, राग तो राग है। ऐसा सोच कर के यह कहना कि जिनके अन्दर यह परिणाम हैं वह निर्ग्रन्थ नहीं; ठीक बात नहीं। भूमिका के अनुरूप ही सारी व्यवस्थाएँ होती है। मूल रूप से अगर हम देखें तो निर्ग्रन्थ-पन ग्यारहवें गुणस्थान में ही है।

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