राजस्थान के समुदाय विशेष में परम्परा रही है कि जब उनके पति या पिता या भाई युद्ध में जाते थे और ऐसी खबर आती थी कि उनके जीवित रहने के प्रमाण नहीं है उनका जीवित रहना भी तय नहीं रहता तो ऐसे में पत्नियाँ, बेटियाँ और माँयें एक साथ बिना विषाद के अग्नि में खुद को समर्पित करके अपने शील की रक्षा करती थी। एक तरफ तो अपने शील की रक्षा के लिए बिना विषाद किये अग्नि में समर्पित होना और एक मुनिराज का जहाँ उन्हें लगता है कि जीवन के अन्तिम क्षणों में वह अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगे तो सल्लेखना धारण करते हैं तो क्या दोनों ही क्रियायें समान रूप से पूजनीय हैं?
आपने बहुत महत्त्वपूर्ण विषय लिया है। इस तरह से सीधे अग्नि में प्रवेश जैन धर्म में कतई मान्य नहीं है। अग्नि में प्रवेश मृत्यु की इच्छा से किया जाता है। शील को खंडित करने से अच्छा तो मर जाना है। अब हमारे पास कोई उपाय नहीं है इस भाव से अग्नि में प्रवेश होता है। जैन धर्म में शील की रक्षा या शील पर संकट आने के बाद भी आत्महत्या का कहीं विधान नहीं है बल्कि यह कहा गया है कि अगर तुम्हारे शील पर संकट है, दृढ़ता से परमेष्ठी का स्मरण करो, देवता आकर के रक्षा करेंगे। चन्दना के शील पर संकट आया, देवताओं ने रक्षा की। मैना सुंदरी के शील पर संकट आया देवताओं ने रक्षा की। सोम सती के शील पर संकट आया, देवताओं ने रक्षा की। अनंतमति के शील पर संकट आया, देवताओं ने रक्षा की। रेवती पर संकट आया देवताओं ने रक्षा की। इन सतियों के शील की रक्षा के आख्यानों से हमारे पुराण भरे पड़े हैं इसलिए ये रास्ता कतई नहीं और मुनि महाराज धर्म पर संकट आने के लिए सल्लेखना नहीं करते हैं। जब हमारा शरीर कुछ करने लायक नहीं होता तो शरीर का ममत्व छोड़ते हुए अपने आहार-पानी को कम करते हैं न कि मरने का प्रयत्न करते हैं। वह मृत्यु पर्यंत आत्मसाक्षात्कार बनाए रखने की स्थिति में आते हैं इसलिए सल्लेखना को इस प्रकार की किसी भी क्रियाओं से नहीं जोड़ा जा सकता।
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