जियो और जीने दो’ का सल्लेखना से विरोधाभास तो नहीं?
सल्लेखना की अवधारणा ऐसी अवधारणा है कि इसके आधार पर अन्तिम क्षण तक ‘जियो और जीने दो’ के संदेश को आत्मसात किया जा सकता है। सल्लेखना का मतलब स्व-पर का मरण ही नहीं, अपितु अन्तिम सांस तक हमारे जीवन से किसी का हनन ना हो हमारी साधना से किसी की विराधना ना हो। इस जाग्रति की भावना का नाम ही सल्लेखना है, तो यह अहिंसा की पराकाष्ठा है, वीतरागता का चरम रूप है और यही धर्म का सार है। जियो और जीने दो की युक्ति तभी सार्थक होगी।
यथार्थत: जो अनेक प्रकार के मेडिकल एड्स (aids) लेते हैं उनको तो कई तरह के एँटी-बायोटिक्स (antibiotics) भी लेने पड़ते हैं और अंदर की आकुलता-व्याकुलता से भी जीव हिंसा की सम्भावनायें बन सकती हैं। लेकिन अपनी सल्लेखना की साधना में रत रहने वाले साधक के द्वारा किसी भी प्राणी की न मन से, ना वचनों से न शरीर से, विराधना नहीं होती।
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