बाघ रूपी व्यसन
(मुनि श्री प्रमाणसागर जी के प्रवचनांश)
एक बार एक सेठ जंगल के रास्ते से जा रहा था, रास्ते में उसे एक बाघ का बच्चा दिखाई दिया। वो उस बच्चे को उठा लाया और उसे अपने घर पर पालने लगा। उसने बाघ को कभी माँस नही खिलाया। एक रोज सेठ सड़क पर गिर पड़ा। उसके घुटने में चोट लगी और उससे रक्त की धार बहने लगी। उसने थोड़ा बहुत उपचार किया और घर आ गया। घर आने पर बाघ रोजमर्रा की भांति उसके पैर चाटने लगा। बाघ की जीभ पर चोट का खून लग गया और उसने घुटने को चाटना शुरू कर दिया। सेठ को कुछ अटपटा लगा। उसने झटके से बाघ को हटाने का प्रयास किया लेकिन बाघ हटने की जगह गुर्राने लगा। उसे समझ आया कि अब मेरा बाघ मेरे लिए खतरा बन चुका है। उसने अपने बच्चों को आवाज लगाई। बच्चों ने अपने पिता को बचाने के लिए घर में रखी बंदूक से बाघ के सिर में गोली मार दी, बाघ मर गया।
सेठ तो बच गया लेकिन मैं आपसे केवल कहता हूँ कि हमारे शरीर का कोई भी व्यसन जब बाघ की तरह हमारे मन में बैठ जाता है और व्यसन की आदत खून की तरह हमारे शरीर में लग जाती है तो उसे छोड़ना बड़ा मुश्किल होता है। व्यसन की शुरुआत करना सरल है लेकिन उसको समाप्त करना बहुत मुश्किल होता है। ये सारे व्यसन बाघ की तरह हमारा खून चूसते रहते है और हम सोचते है, ये छूट जाये। लेकिन वो छूटने को तैयार नहीं होते। सेठ के पुत्रों ने तो उस बाघ को मार कर के सेठ को बचा लिया पर हमारे भीतर के इस व्यसन रुपी बाघ को मारने के लिए कोई बाहर से आने वाला नहीं है, उसके लिए हमें खुद संकल्पित होना होगा। अपने अवचेतन मन को जागृत करना ही होगा।
Edited by: Pramanik Samooh
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