क्या तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय को शुभाश्रव के रूप में स्वीकारना सही है?

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शंका

तत्त्वार्थ सूत्र का सातवाँ अध्याय शुभोपयोग का वर्णन करता है। इससे शायद शुभाश्रव का वर्णन किया गया है। जबकि व्रत, संवर और निर्जरा के कारण होते हैं। तो फिर सातवें अध्याय को संवर – निर्जरा के कारणों में क्यों नहीं रखा जाना चाहिए, यह शुभाश्रव का कारण कैसे हो सकता है?

समाधान

पहले तो हम यह निश्चित करें कि सातवें अध्याय को शुभाश्रव के रूप में किस आचार्य ने बताया? किसी ने भी इस अध्याय ‘शुभाश्रव का वर्णन है’, ऐसा स्पष्ट शब्द में नहीं लिखा। दूसरी बात, आचार्य पूज्यपाद ने खुद सर्वार्थसिद्धि में एक प्रश्न उठाया है कि “आप यहाँ व्रतों की बात कर रहे हैं, आगे नवें अध्याय में संवर के प्रकरण में संयम धर्म की बात करेंगे; तो इसमें और उसमें क्या अन्तर है?” तो उन्होंने बहुत अच्छा उत्तर दिया 

“वृतेशुकृत परिकर्म:साधु सुखेनु संवरम करोति।”

जो व्रतनिष्ठ साधु है, वही अच्छे से संवर करता है। इसलिए हम ने व्रत को पहले से लिख दिया। व्रत का वर्णन पहले से कर दिया। इसका तात्पर्य ये मत समझना कि व्रत शुभाश्रव का कारण है। व्रत संवर और निर्जरा का कारण है। व्रत को अलग से वर्णन करने का आचार्य उमास्वामी का जो भाव है वो यह है कि ‘व्रत की वेदी पर चढ़कर ही साधना के भगवान को विराजमान किया जा सकता है’, इसलिए उन्होंने इसे ‘प्लेटफॉर्म’ बनाया है। उसको बहुत अच्छे ढंग से देखने की आवश्यकता हैं।

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