आज मैंने स्वाध्याय में पढ़ा था कि यदि कोई व्यक्ति दान देता है, तो उस दानी की अनुमोदना करनी चाहिए। लेकिन यदि कोई व्यक्ति मन्दिर की सम्पत्ति लाखों करोड़ों की सम्पत्ति कब्जे में करके चालीस-पचास हजार रुपए का दान देता है, तो क्या उस दान की अनुमोदना करनी चाहिए?
दान की तो अनुमोदना करो पर उसके उस कृत्य की समय-समय पर आलोचना भी करते रहो, ताकि उसको सीख मिले। वो दान नहीं है, ये तो दान का ढोंग है। अगर तुमने मन्दिर की सम्पत्ति को इस तरीके से हथियाया है, तो तुम्हारी दुर्गति तो तय है। अभी पुण्य का योग है, सब अनुकूलता बनी हुई है। कब ऐसा पाप का प्रकोप आए, कुछ कहा नहीं जा सकता।
एक घटना सुनाना चाहता हूँ। मैं जब जयपुर चातुर्मास में था, एक सज्जन मेरे पास प्रायश्चित्त लेने के भाव से आए। वो जयपुर के एक मन्दिर के पदाधिकारी थे, treasurer (कोषाध्यक्ष) थे। उनको व्यापार में नुकसान हुआ। क्योंकि उनके पास मन्दिर का पैसा रहता था, उन्होंने मन्दिर के १६,००,००० रुपए, अपने व्यापार में लगा दिए। करोड़ों का व्यापार था, थोड़ी crisis हुई। ये सोच करके कि ‘चलो मेरे पास पैसा पड़ा है मन्दिर का, कौन पूछने वाला है, १६,००,००० रुपए लगा देंगे। जब आएगा पैसा तब हम दे देंगे।’ उन्होंने आ करके जो बात मुझे कही वो मैं आप सब से कह रहा हूँ। बोला- ‘महाराज जी, तीन वर्ष पहले ये कृत्य मैंने किया था और महाराज जी जिस दिन मैंने मन्दिर का रुपया लगाया, उसी दिन से मेरा downfall शुरू हो गया। मेरा अधोपतन हो गया, मेरा मकान बिक गया, मेरा धंधा चौपट हो गया, आज मेरा बेटा नौकरी कर रहा है। महाराज जी! मेरा मन कचोट रहा है, मैं बहुत समस्याओं से जूझा हूँ। आपके प्रवचन नियमित सुनता हूँ। आप मुझे मार्गदर्शन दें आगे क्या करूँ? उस पाप का प्रक्षालन कैसे होए? ये प्रायश्चित्त लेने के लिए आया हूँ।’ ये एक उदाहरण है, आप अपने अन्दर देखिए।
किसी को तुरन्त फल मिलता है, किसी को आगे-पीछे मिलता है, लेकिन फल तो मिलेगा। इसलिए कभी भी किसी की सम्पत्ति मत हथियाओ और भगवान की सम्पत्ति को तो बिल्कुल भी हाथ मत लगाओ। किसी ने दान दिया और तुम उसको कब्जा कर रहे हो, कितना बड़ा पाप है। ये अपने जीवन के साथ नाइंसाफी है। इससे बचना चाहिए।
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