आचार्य, एलाचार्य व आचार्यकल्प में क्या अंतर है?

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शंका

आचार्य होते हैं, पर क्या एलाचार्य व आचार्यकल्प आदि भी कोई पद होते हैं और इसका क्या मतलब है?

समाधान

आचार्य संघ के नायक होते हैं। ऐलाचार्य का और आचार्यकल्प का जहाँ तक प्रश्न है इसका इस रूप में कोई शास्त्रीय विधान नहीं है, पर किन्हीं किन्हीं महान आचार्यों के साथ ऐलाचार्य प्रयोग होता है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने अपने आप को ऐलाचार्य का शिष्य बताया। आचार्य कुन्दकुन्द का एक उपनाम भी ऐलाचार्य था। 

आगम में ऐसा बताया है कि एक आचार्य अपने संघ का पूरी तरह से संचालन करके अपने उत्तमार्थ यानि अपनी समाधि की तैयारी करते है, तो संघ में ही किसी एक दूसरे आचार्य को, योग्य शिष्य को बालाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं और बालाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित करके उसके ऊपर संघ का पूर्णभार दे देते हैं और खुद अपनी साधना में लगते हैं। अपने द्वारा बहुत थोड़े निर्देश देते हैं। बाकी उसको अपना उत्तराधिकारी बना देते हैं। जब उसकी संघ पर पकड़ हो जाती है, तो वे स्वयं संघ छोड़कर किसी योग्य निर्यापक आचार्य के पास जाकर अपनी समाधि की साधना करते हैं। ऐसी व्यवस्था के कारण ही बालाचार्य कालांतर में आचार्य बन जाते थे। 

ये एक शास्त्र सम्मत व्यवस्था है। ये तभी होता है जब आचार्य खुद समाधि लें। तब किसी दूसरे को अपना उत्तराधिकारी बनायें। तब आचार्यत्व एक दायित्व था। अब यह एक पद बन गया, एक डिग्री बन गयी। अब  मुनि दीक्षा कम आचार्य दीक्षा ज्यादा होने लगी हैं। पता नहीं भविष्य में क्या होगा? आने वाले दिनों में मुनि कम आचार्य ज्यादा बनेंगे और ये आचार्यत्व ठीक नहीं है। ये जो है प्रशंसनीय नहीं है। कहते हैं कि बाप के जीवित रहते हुए बेटे के सिर पर पगड़ी नहीं बांधी जाती है। इसी प्रकार आचार्य खुद हैं, अपना आचार्य पद वो देते हैं, जब उन्हें अपनी समाधि को सौंपना पड़ता है। व्यवस्था यही थी, आज कल ये बिगड़ गयी है।

मेरे साथ एक प्रसंग हुआ जब मेरी मुनि दीक्षा हुई। दीक्षा के दो महीने बीते थे। सोनागिर से संघ ललितपुर आया। आचार्य गुरुदेव की आज्ञा से उनकी ही उपस्थिति में मेरा भी एक प्रवचन हुआ आधा-एक घंटे का। शुरूआती बात थी, सन् १९८८ की। मैं प्रवचन करके अपने कक्ष में आया। दिल्ली के दो सम्भ्रान्त से व्यक्ति आये। दिल्ली के सम्भ्रांत से व्यक्ति पीछे-पीछे आये, आकर बैठे और बोले कि “महाराज! क्या बोलते हो! और कहाँ फँसे हो आप दिल्ली चलो! हम आपको आचार्य बना देंगे।” मैंने कहा, “भैया! हम यहीं भले, हमें अपना अचार नहीं बनवाना है” और सच में उनकी बात को मान लिया होता तो मेरा अचार ही बन जाता।

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