विद्यालय की विद्या और धार्मिक विद्या में अंतर!

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शंका

स्कूल की कक्षा में अध्यापक विद्यार्थी को विषय का पाठ समझाते हैं, तब अध्यापक विद्यार्थी से प्रश्न करते हैं और विद्यार्थी को जवाब देना होता है। परन्तु आपकी धर्म सभा रूपी कक्षा में आप धर्म का ज्ञान श्रद्धालुओं को समझाते हैं, लेकिन श्रद्धालु अपनी जिज्ञासा का प्रश्न मुनि श्री से करते हैं और मुनि श्री अपनी वाणी से श्रद्धालुओं को जिज्ञासा शान्त करते हैं। स्कूल और धर्म क्षेत्र में ऐसा विपरीत क्यों है?

समाधान

आपके विद्यालय में आपको जो विद्या सिखाई जाती है, वो अर्थकारी है और हमारे यहाँ जो विद्या सिखाई जाती है, वो परमार्थकारी है। ये तो हमारे तीर्थंकरों की परिपाटी है। तीर्थंकरों का जितना भी उपदेश है, वह सब प्रश्नों पर आधारित है। हम विद्यालय में जाते हैं सीखने के लिए और गुरु चरणों में आते हैं, समाधान के लिए। पढ़ करके सीखा जाता है और पूछ करके समाधान पाया जाता है। तो आप यहाँ समाधान पाने आए हैं, आपने अपनी शंका रखी और सुनकर समाधान पाकर आप निशंक हो जाते हैं। हमारा पूरा दर्शनशास्त्र इसी के आधार पर विकसित हुआ, अर्थात ब्रह्म जिज्ञासा। ब्रह्म की जिज्ञासा हुई, तब दर्शन की उत्पत्ति हुई। हमारे तीर्थंकरों से जब प्रश्न पूछा गया, तब उन्होंने तत्त्व का उपदेश दिया। ये तो हमारा मार्ग है, ये परमार्थ का मार्ग है। इसलिए परमार्थ के मार्ग में ऐसे ही होता है और लोग कतार में लगते हैं, पर कतार में लगते ही, धीरे-धीरे वो तर भी जाते हैं।

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