सिद्धान्त चक्रवर्ती और चक्रवर्ती में क्या फर्क है?

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शंका

सिद्धान्त चक्रवर्ती और चक्रवर्ती में क्या फर्क है?

समाधान

ये एक उपाधि है। चक्रवर्ती उसे कहते हैं जो चक्ररत्न के प्रवर्तन के साथ सम्पूर्ण भूमण्डल को अपने अधीन कर ले षट्खण्डों को, भरत क्षेत्र को अपने अधीन करने वाले इस धरती के चक्रवर्ती कहलाते हैं। इसी तरह जो सारे आगम को मथ डाले, सम्पूर्ण वाङ्गमय पर अपना अधिकार कर लें, ऐसे मुनिराजों को, आचार्यों को सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि दी जाती रही है। 

हमारे यहाँ वर्तमान में शासन परम्परा में आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के रूप में ख्यात हैं, जिनकी प्रेरणा से गोमटेश्वर बाहुबली की स्थापना हुई। उन्हें सिद्धान्त चक्रवर्ती इसलिए कहा गया क्योंकि उन्होंने षट्खण्डागम का मंथन करके, उसके नवनीत स्वरूप गोम्मटसार की रचना की। उनसे पूर्व किन्हीं आचार्य के सिद्धान्त चक्रवर्ती होने के प्रमाण मुझे आगम मे कहीं देखने को नहीं मिले। उन्हे इसलिए सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपमा दी गई कि जैसे चक्रवर्ती छः खण्डों को जीतकर सार्वभौम साम्राज्य स्थापित करता है, वैसे ही नेमीचन्द्र आचार्य ने षट्खण्ड रूप आगम को मथ कर उसके नवनीत स्वरूप गोम्मटसार प्रदान किया है, इसलिए उन्हें सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि दी गई और फिर बाद में परम्परा बनी और फिर जिन्हें बाद मे आगम का विशिष्ट ज्ञान रहा, उन्हें सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि दी जाने लगी। यद्यपि ये सब उपाधियाँ संसार में ही अटकाने वाली हैं। हमारे श्रुत केवलियों को भी किसी ने सिद्धान्त चक्रवर्ती नहीं कहा लेकिन नेमीचन्द्र आचार्य ने हम सब पर परोपकार किया कि उन्होंने षट्खण्डागम का नवनीत हम सब के लिए दिया।

चारित्र चक्रवर्ती यानी चारित्र के क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर पर युग के अनुरूप पहुँच गये, उन्हें चारित्र चक्रवर्ती की उपाधि दी गई। वर्तमान में चारित्र चक्रवर्ती की उपाधि शान्ति सागर जी महाराज को दी गई। वास्तव में देखा जाये तो चारित्र चक्रवर्ती तो अरिहन्त भगवान हैं जिन्होंने अपने चारित्र के प्रभाव से कैवल्य को प्राप्त किया। संसार में कोई भी प्राणी क्यों न हो, वह चारित्र चक्रवर्ती नहीं है। यथाख्यात चारित्र से पूर्व सबका चारित्र सकषाय चारित्र है, सदोष चारित्र है; लेकिन शान्ति सागर जी महाराज को चारित्र चक्रवर्ती की उपाधि इसलिए दी गई क्योंकि बीसवीं शताब्दी में उन्होंने चारित्र के मार्ग का प्रर्वतन किया। जैसे एक राजा दिग्विजय के लिए निकलता है, सर्वत्र मार्ग खोलता है, ऐसे ही शान्ति सागर जी महाराज ने दक्षिण भारत से उत्तर भारत तक सम्पूर्ण भारत व्यापी विहार करके मुनियों का मार्ग खोला, चारित्र का मार्ग खोला, इसलिए वह चारित्र चक्रवर्ती कहलाये। 

परम पूज्य गुरुदेव को सन् 1982 में सागर की वाचना में समागत वरिष्ठ विद्वानों ने अपनी ओर से सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा। षट्खण्डागम की वाचना थी पण्डित फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री, पण्डित कैलाश चन्द सिद्धान्त शास्त्री, पण्डित पन्नालाल साहित्याचार, पण्डित जगनमोहनलाल सिद्धान्त शास्त्री, पण्डित दरबारी लाल कोठिया, पण्डित बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री, पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य, पण्डित जवाहरलाल सिद्धान्त शास्त्री जैसे उस समय के दिग्गज और धुरन्धर विद्वानों की उपस्थिति में गुरुदेव के लिए उपाधि का प्रस्ताव रखा गया। कैलाश चन्द सिद्धान्त शास्त्री जी ने जैसे ही प्रस्ताव रखा, उनकी बात पूरी नहीं हुई कि आचार्य गुरुदेव ने बीच में ही बात काटते हुए कहा कि बस जिसका स्थान पञ्च परमेष्ठी में है, उससे बड़ा और कोई पद नहीं होता। गुरु ने मुझे आचार्यत्व का दायित्व दिया है, बस यही है और यह भी एक उपाधि है। आधी-व्याधि, उपाधि से ऊपर उठने पर ही समाधि होती है इसलिए उन्होंने उसे अस्वीकृत कर दिया। वह कभी कोई उपाधि नहीं चाहते, अपने साथ कोई विशेषण नहीं चाहते, क्योंकि मेरी दृष्टि में वह खुद विशेषणों के विशेषण हैं।

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