धर्म के प्रति शंका न करते-करते हमारे विचार कट्टरपंथ की तरफ बढ़ने लगते हैं। तो निशंक अंग धर्म और कट्टरपंथ के बीच में हम कैसे भेद करें और किस तरह से हम नि:शन्कित अंग का पालन करें?
धर्म की श्रद्धा अलग बात है और साम्प्रदायिक श्रद्धा अलग बात है। हमारा जो सम्यक् दर्शन है वो आत्मा स्पर्शी होता है। जिसे अपनी आत्मा पर, तत्त्व पर और उसके स्वरूप पर दृढ़ श्रद्धान होता है। जिसे उसके ऊपर किंचित भी शंका न हो, वो सम्यक दृष्टी होता है। ये आध्यात्मिक श्रद्धा है। लेकिन मेरे शास्त्र में जो लिखा है वही सही, मेरे गुरु ने जो बोल दिया वही सही, मेरे धर्म ग्रन्थ जो बोलते हैं वही सही, भीतर से आत्मा के प्रति कोई रुझान नहीं और बाहर के अन्य परम्पराओं के प्रति जो अश्रद्धान या द्वेष मूलक भावना है, ये श्रद्धा सम्यक् दर्शन हो, इसकी कोई गारंटी नहीं। ये सांप्रदायिक श्रद्धा है। आध्यात्मिक श्रद्धा होनी चाहिए। किसके लिए श्रद्धा हो, उसका भी तो पता होना चाहिए। और जिसके हृदय में आध्यात्मिक श्रद्धा होगी वो अपनी श्रद्धा में दृढ़ रहेगा पर किसी के साथ उलझेगा नहीं।
Leave a Reply