णमोकार मन्त्र में क्या आचार्य भी साधु को नमस्कार करते हैं?
जयश्री सेठी, गिरीडीह
जैन धर्म की एक विशेषता है। जैन धर्म व्यक्ति कि नहीं, गुणों की पूजा पर बल देता है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पंच परमेष्ठी है। ये पाँच व्यक्ति नहीं, सिद्ध और साधना सम्पन्न साधक आत्माएँ है, ये सब के सब गुण सम्पन्न आत्माएँ है।आचार्य परमेष्ठी यद्यपि आचार्य हैं, लेकिन उनके लिए भी उपाध्याय और साधु उतने ही प्रणम्य हैं जितने हम-आपके लिए। इसलिए आचार्य जब णमोकार जपते हैं तब अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पांचो परमेष्ठी को जपते हैं। एक बात और इस प्रसंग में मैं कहना चाहता हूँ कि आचार्यत्व कोई उपाधि नहीं एक दायित्त्व है। दायित्त्व है संघ के संचालन का। जैसे परिवार का एक मुखिया होता है, वैसे संघ का एक नायक होता है। दीक्षा-शिक्षा देना उन्हीं आचार्य का अधिकार होता है। ये एक व्यवस्था है पर ये भी तय है की आचार्य जब तक अपने आचार्य के कार्यों में लगे रहेंगे, तब तक उनका भी कल्याण नहीं होगा। एक आचार्य को भी अपने कल्याण के लिए अन्त में आचार्य को भी आचार्य पद छोड़कर साधु बनना पड़ता है, तब कल्याण होता है। इसलिए ध्यान रखना मूल मार्ग रत्नत्रय है, वो बाहर का भेष और उपाधि नहीं। हमारे लिए प्रणम्य पाँचों परमेष्ठी हैं, और आचार्य भी पाँचों परमेष्ठी की आराधना करते है।
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