कर्म को दोष मत दो!

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शंका

हम ८४ लाख योनियों में कर्मों की वजह से भटक रहे हैं लेकिन एक पूजा की पंक्ति हमें भ्रमित करती है- जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी, मैं राग-द्वेष किया करता जब होती परिणति जड़ केरी”, इनमें क्या अंतर है?

समाधान

यह पंक्तियाँ सही भी हैं और गलत भी हैं। इसे अनेकांतात्मक दृष्टि से देखना चाहिए। ये पंक्तियाँ उसके लिए हैं जो हमेशा कर्मोदय की दुहाई देकर अपने पुरुषार्थ को आगे नहीं बढ़ाता। ‘क्या करूँ, कर्म के उदय से परेशान हूँ, कर्म मुझे करने नहीं देता’- यह अज्ञानी की भाषा है। तुम्हारी आत्मा अगर जागृत है, तो तुम्हारा कर्म कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, यह तुम्हारे भीतर का श्रद्धान होना चाहिए। 

कर्म के उदय में जब मनुष्य राग-द्वेष करता है, तो उस राग-द्वेष से आकुलता होती है, नए कर्म का बन्ध होता है, संसार की अभिवृद्धि होती है, तो कोरा कर्म किसी को नहीं भटकाता, जब तक उस कर्म के उदय में व्यक्ति राग-द्वेष नहीं करता। कर्म तो उन महात्माओं के आड़े भी आया जिन्होंने गहन साधना की लेकिन कर्म उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका, उन्होंने अपने ज्ञान के बल पर कर्म की जड़ उखाड़ दी। आप गजकुमार मुनिराज को देखिये, उन्हें कर्म ने कितना नाच नचाने का प्रयास किया, सिर पर जलती हुई सिगड़ी रख दी। कर्म ने नचाना चाहा पर क्या गज कुमार मुनिराज नाचे? कर्मोदय था, कर्मोदय यदि नाच नचाता, तो उन्हें अनिवार्य रूप से नाच नाचना चाहिए ही था लेकिन उनको कुछ नहीं हुआ। किस के बल पर? क्योंकि उनका ज्ञान जागृत था।

 

 

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