क्या अपरिग्रह का अर्थ सन्यासी बन जाना है?

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शंका

क्या अपरिग्रह का अर्थ सन्यासी बन जाना है?

समाधान

जैन धर्म में परिग्रह को पाप कहा गया है, ये ठीक बात है और अपरिग्रह को आदर्श बताया गया है, ये भी बिलकुल समझने योग्य बात है पर इसे समझें! अपरिग्रह के आदर्शों को दो रूपों में रखा गया है। एक-पूर्ण अपरिग्रह; और दूसरा-सीमित परिग्रह। पूर्ण अपिरग्रह का मतलब है, तिलतुश मात्र भी अपने पास न रखना, जो केवल साधु-जीवन में ही सम्भव है। ऐसे अपरिग्रही सब हो जाएँ तो मामला गड़बड़ हो जायेगा। तो हमारे तीर्थंकर भगवन्तों ने गृहस्थों को सीमित परिग्रह रखने का उपदेश दिया है। सीमित परिग्रह का मतलब-अपने जीवन के लिए आवश्यक आधारभूत सुविधाएँ, अपनी ज़रूरतों की पूर्ति; आपत्ति-विपत्ति के लिए यत-किंचित संग्रह करो और अपनी तृष्णा को सीमित करो। क्योंकि ये परिग्रह, धन का संग्रह, अनेक पापों का मूल है। इसके पीछे मनुष्य अनेक प्रकार के अनर्थ करता है ये हमारी आकुलता सबसे बड़ा हेतु है। इसलिये इससे बचो! जितना ज़रूरत है उतना अर्जित करो, उससे अधिक के प्रति निःस्पृहता का भाव रखो। अगर धन तुम्हारे पास है भी तो उसके प्रति आसक्ति मत रखो, आवश्यकता के अनुरूप उपभोग करो और शेष बचे का ज़रूरतमंदों के लिए उपयोग करो। अपरिग्रह का ये आदर्श है। 

अपरिग्रही होने का मतलब ये नहीं है कि आप अपनी ज़रूरतों की पूर्ति न करें! ज़रूरतों की पूर्ति करें लेकिन केवल जोड़ – जोड़ कर रखने की वृत्ति से बचें, जितना आवश्यक है उतना प्रयोग करें, संग्रह करें और उसके अतिरिक्त जो बचे वो और लोगों को दें। ये आदर्श आप अपना सकते हैं।

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