कहते हैं कि निर्माल्य द्रव्य का मतलब होता है मन्दिर में चढ़ाया गया वह पैसा जिसको हम किसी अन्य प्रयोजन के लिए उपयोग में लें। इस बाद प्रश्न आता है कि पंचकल्याणक में जो पैसा आता है, या चातुर्मास के लिए जो पैसा आता है क्या वह भी निर्माल्य द्रव्य की श्रेणी में आता है? कई लोग ऐसा भी पूछते हैं कि “जब हमने इतना योगदान इस कार्यक्रम में दिया है, तो थोड़ा बहुत अगर धन अपने पास रख लिया तो क्या दोष है?”
देव-गुरु धर्म के निमित्त जो कुछ भी अर्पित होता है, वह निर्माल्य कहलाता है। लिखा गया है देवता के लिए निवेदित अथवा अनिवेदित द्रव्य का उपभोग करने से तीव्र अन्तराय कर्म का बंद होता है।
भगवान के द्रव्य में, जो हमने चढ़ा दिया, वह तो है ही, इसके अतिरिक्त भगवान की पूजा-अर्चना के निमित्त जो कुछ भी अर्पित किया जाता है वह भी निर्माल्य द्रव्य की श्रेणी में आता है। जीर्णोद्धार का पदार्थ, जिन पूजा-वन्दना आदि के निमित्त अर्पित विशेष धन का जो उपयोग करता है, नरक गति में चिरकाल तक दुखों को भोगता है। वहाँ से निकलता है, तो पुत्र-करत से विरहित होता है, दरिद्री होता है, पंगु होता है, मूक होता है, बहरा होता, अन्धा होता और हीन जन्म लेता है, तो ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। शास्त्रों में जो लिखा है सो लिखा है, मैंने कई ऐसे लोगों के जीवन को नज़दीकी से देखा, जिन्होंने निर्माल्य द्रव्य का सेवन करके अपने जीवन में अनर्थ घटित किया है।
मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिस के गाँव में मन्दिर की १० एकड़ जमीन थी। मन्दिर के लिए लगाई हुयी थी, वह जोतता था। पुराने जमाने में लोग मन्दिर बनाते थे, उदारता से जमीन जायदाद मन्दिर में लगा दिया करते थे, मौखिक ही बातें होती थी, लिखा-पढ़ी नहीं होती थी और लोग ज़ुबान के पक्के होते थे। उसकी खुद की ४० एकड़ जमीन थी, मन्दिर की १० एकड़ जमीन थी, लगी हुई थी, वह जोत रहा था किसी ने कुछ बोला नहीं। धीरे धीरे उस जमीन की कीमत बढ़ गई जमीन की कीमत ४० लाख रुपए/ एकड़ हो गयी। ४ करोड़ की जमीन, समाज के लोग उससे बोले भाई-“यह मन्दिर की जमीन हैं, तुम इस ज़मीं को जोतते हो, उसका कुछ हिसाब किताब तो दो”, वो बोला- “आपको क्या करना है? हम अपना सारा हिसाब किताब रखते हैं, हमारे पुरखों की मन्दिर है, पुरखों की जमीन है हम जोतते हैं।” उसे पर्याप्त आय होती थी और मन्दिर में रु १५०० -२००० प्रति महीने से ज्यादा वह खर्च नहीं करता था। वहाँ छोटी सी समाज थी, ४- ५ घर की समाज, चलता रहा। वह संपन्न था, सब कुछ था, किसी चीज की कमी नहीं, लेकिन उस १० एकड़ जमीन के प्रति उसकी नियत खराब हो गयी। एक बार लोगों ने जब उस पर ज्यादा दबाव दिया कि “भाई ये मन्दिर की जमीन है, समाज की जमीन है, समाज को सौंपो।” उसने कह दिया-“किसने कहा यह समाज की जमीन है? यह हमारी जमीन है, तुम्हारे पास कोई जमीन का कोई प्रमाण हो तो बताओ।”
जिस दिन उसकी नियत खराब हुई और जिस दिन उसने कहा कि ‘यह जमीन हमारी है समाज की नहीं है, प्रूफ हो तो बताओ’, आप सुनकर आश्चर्य करोगे, उसके दो बेटे स्कूटर से गाँव से शहर की ओर जा रहे थे, ट्रक एक्सीडेंट से चले गए, तीसरे दिन दो बेटे का स्वर्गवास हुआ और उसकी पत्नी को ६ महीने के बाद ब्रेन हेमरेज हुआ, बच गई संभल गई; खुद को व्यापार में भारी नुकसान हुआ। उस साल उसने चने का भरपूर स्टॉक किया और उसमें बहुत मंदी आई, भारी नुकसान का भागी बना। संयोग से कुछ दिन बाद मेरा वहाँ जाना हुआ, मेरे पास आया, उसने अपनी व्यथा कथा कही, तो मैंने उससे कहा “भाई! तुमने ऐसी नियत खराब क्यों की? तुम इतना नुकसान झेल लिए, तुम्हारे बेटे खो गए, अब तुम किसके लिए काम कर रहे हो। पत्नी भी इतने बड़े झटके को झेल करके संभली है, अब तो संभल जा। भगवान की संपत्ति को कोई भोग नहीं सकता, तुम्हारे पूर्वजों ने तो मन्दिर बनाया, संपत्ति लगाकर के पुण्य कमाए और तुम नियत खराब करके नरक के रास्ते में जाने की तैयारी कर रहे हो।” मेरे समझाने के बाद बोला “महाराज उपाय क्या है?” हम बोले-“जमीन वापस करो! इतने साल तुमने जमीन जोता है, तो कुछ रुपए दान में दो। और एक बात, सिद्ध चक्र महामंडल विधान करो। उसने जमीन वापस की, ५१००० रूपए का पंचों को दान दिया, और बाद में सिद्ध चक्र महामंडल विधान का आयोजन किया।
यह घटना १९९८ की है, तब से आज तक उसकी स्थिति बहुत अच्छी बनी हुई है। कहीं कोई कमी नहीं जो नुक्सान हो गया, सो हो गया, लेकिन बाद में संभल गया। तो कभी भी जीवन में इस तरह का कृत्य नहीं करना चाहिए।
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