तीर्थंकर भगवान एवम् अनेक मुनियों ने स्वयं दूसरी जाति के होकर जैन धर्म ग्रहण किया है। लेकिन आजकल बड़ी संस्थाएँ, बड़े महाराज आदि आजकल विजातीय विवाह का विरोध कर रहे हैं। ये कहाँ तक ठीक है?
जाति अलग है और धर्म अलग है तीर्थंकर जो है वो जैन जाति नहीं जैन धर्म है। जातियाँ तो जैनियों में अनेक हैं, आज भी अनेक हैं। तीर्थंकर क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए और उन्होंने जैन धर्म का प्रवर्तन किया। हमारे यहाँ कुछ व्यवस्था है, जिसमें एक शब्द है वर्णलाभ; दूसरा शब्द है वर्ण संकल्प। वर्ण-लाभ का मतलब है कि सामने वाले को अपने आचार-विचार में विधिपूर्वक परिवर्तित कर लेना ये तो है वर्णलाभ और वर्ण संकल्प का मतलब है बिना विवेक और विचार के सब को मिलाकर खिचड़ी बना लेना। तो ये वर्ण-संकल्प बहुत खतरनाक होता है। यदि कहीं निषेध किया जाता है, तो वह वर्ण-संकल्प की दृष्टि से किया जाता है; वर्णलाभ का विधान है।
‘महाराज! आप कहो तो हम वर्ण-लाभ के हिसाब से गैर जाति के लड़के या लड़कियों से सम्बन्ध करने के लिए खुली छूट दे दें; ऐसे तो एक लड़की हमारे घर आयेगी?’ यदि ऐसा आप करोगे तो खिचड़ी बन जायेगी। अगर लाना है, तो उसकी शास्त्रसम्मत जो व्यवस्था है उस व्यवस्था के अनुरूप उस व्यक्ति को पहले विधिवत् जैन धर्म की दीक्षा दी जाये और किसी आचार्य के समक्ष ले जाकर जैन गोत्र दिलाया जाये और जब वो पूरी तरह जैन बन जाये तो आप उन्हें अपना लीजिए, तब आप में और उसमें कई अन्तर नहीं है। जैन धर्म में विधिवत् दीक्षित तो करो, परिस्थिति वश नहीं। श्रद्धा के साथ उसके हृदय को परिवर्तित करके यदि इस तरह का कार्य किया जाता है, तो ये समाज में बहुत क्रांतिकारी कार्य होगा।
ये तो आचार्यों का कार्य है, उन्हें विचार करके समाज को इस तरह की दिशा देनी चाहिए। पर इस तरह की खिचड़ी बनाने की आगम में कोई व्यवस्था नहीं है। आगम में खुली व्यवस्था है कि कोई अजैन व्यक्ति अपने हृदय परिवर्तन के आधार पर जैन धर्म को स्वीकार करना चाहता है, तो उसे किस तरह से जैन धर्म की दीक्षा दी जा सकती है, तो उसे विधिवत् जैन धर्म की दीक्षा देकर उसका सारा मिथ्यात्व छुड़ाया जाता है और उसके आगे का मार्ग प्रशस्त किया जाता है। चक्रवर्ती तो मलेच्छ खण्ड की कन्याओं को अपने साथ लेकर आता है, विवाह करता है और उससे उत्पन्न सन्तान आगे अपना काम करती है।
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