श्रावक अपनी भूमिका के अनुसार तप करते हैं तो क्या उनके तप के द्वारा उनकी संवर और निर्जरा होती है?
श्रावक एक देश तप करता है, तो एक देश निर्जरा भी होती है और एक देश संवर भी होता है, मुख्य रूप से संवर और निर्जरा के अधिकारी मुनि होते हैं पर व्रती श्रावक के लिए भी संवर और निर्जरा होती है, अव्रती को संवर और निर्जरा उस रूप में नहीं बताई है, आंशिक संवर और निर्जरा होती है।
पर जितनी निर्जरा अव्रती करता है उतना ही बन्ध कर लेता है। भगवती आराधना में लिखा है –
सम्मादिठि्ठस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि।
होदि हु हत्थिण्हाणं चुंदच्चुदकम्म तो तस्स!।।
अविरत सम्यग्दृष्टि के तप महा गुणकारी नहीं होता वो उसके हाथी के स्नान की तरह होता है या चुंदच्चुद कर्म की तरह होता है। यानी जो पुराने ज़माने में लकड़ी में बरमा-कमानी से छेद किया जाता था, इधर से रस्सी खींचो और जितनी रस्सी खिंची जाए उतनी उसमें लिपटती जाए, तो वो जितना झड़ाता है उतना ही बांध लेता है।
लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ऐसा करके वह व्रत-उपवास, त्याग-तपस्या आदि न करें। वह जो भी कुछ कर रहा है, उसके भले के लिए हो रहा है और यह आज एक देशतप कल उसे सर्वदेशतप में समर्थ बनाएगा और वह पूर्ण निर्जरा का अधिकारी बनेगा।
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