भाव हिंसा को ही मूल हिंसा कहा गया है। वैसे ही क्या परिग्रह का भाव पाप की श्रेणी में नहीं आयेगा?
हमारे यहाँ हर एक क्रिया के पीछे दो पक्ष हैं- एक द्रव्य पक्ष और एक भाव पक्ष। जैन धर्म ‘द्रव्य’ से ज्यादा महत्त्व ‘भाव’ को देता है। हमारे यहाँ क्रिया महत्त्वपूर्ण नहीं है क्रिया के साथ जुड़ी हुई भावना महत्त्वपूर्ण है। आपने जो बात छेड़ी है वह बहुत गहरी छेड़ी है। प्रायः लोग इस तरफ ध्यान नहीं देते हैं। हिंसा और अहिंसा के प्रति लोगों का रुझान तो दिखता है, पर पापों में परिग्रह और अपरिग्रह की तरफ ध्यान बहुत कम जाता है।
आपने जो पूछा है कि भाव मूलक हिंसा को हिंसा कहते हैं। सब गिनते हैं, पर परिग्रह मूलक भाव को लोग नहीं कहते। बात बिल्कुल यथार्थ है। हमारे यहाँ पाँच पाप हैं और पाँचों पाप हमारी आत्मा का पतन कराने वाले है। उन पाँच पापों में एक पाप है परिग्रह। तो परिग्रह का अर्जन करना भी पाप है, और परिग्रह का संरक्षण करना भी पाप है, परिग्रह का संवर्धन करना भी पाप है, और ऐसा भाव रखना भी पाप है। जब तक परिग्रह है तब तक पाप है। परिग्रह का मतलब ही है पाप का संग्रह। इसे लोग नहीं समझते हैं। हमारा धर्म परिग्रह है या अपरिग्रह है? अपने मन से सोचो। प्रायः हर व्यक्ति के साथ ऐसा भाव जुड़ा हुआ मिलता है कि हिंसा, चोरी, झूठ, कुशील के प्रति जैसी धारणा है, परिग्रह के प्रति वैसी धारणा नहीं रह पाती। तो ये मान कर चलो कि जितनी देर आपका चित्त परिग्रह से जुड़ा है, पाप से जुड़ा है। आप दुकान में बैठे हो क्या कर रहे हो? व्यापार के चिंतन में लगे हो क्या कर रहे हो? अपने धन को invest करने के बारे में सोच रहे हो क्या कर रहे हो? कदम-कदम पर पाप है। गृहस्थों के कदम-कदम पर पाप है। इसलिए इस पाप से बचने के लिए शुभ अनुष्ठान करने की प्रेरणा की जाती है।
आप २४ घंटे खटकर्म में लगे रहते हो उससे बचना है, तो सत्कर्म करो। तो भाव भी पाप है, और गृहस्थों के साथ पाप तो है ही। यदि साधु भी बन गए और बाहर से परिग्रह नहीं है पर मन परिग्रह में रमता है, तो साधु भी पाप से जुड़ जाता है। इसलिए भाव परिग्रह को हमें बहुत गहराई से समझना चाहिए और परिग्रह के भाव को कम से कम करने का प्रयास करना चाहिए। तभी हमारे जीवन में वास्तविक आनन्द की अनुभूति होगी।
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