क्या काल लब्धि आने पर ही कार्य होता है?

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शंका

क्या काल लब्धि आने पर ही कार्य होता है?

समाधान

ये कथन है कि ‘कार्य लब्धि के आने पर ही कार्य होता है।’ लेकिन हम इस कथन को सब कुछ मानकर चलेंगे तो हम कुछ भी कार्य नहीं कर पायेंगे। आगम में दोनों तरह का विधान हैं – निमित्तपरक और उपादानपरक। जब निमित्तपरक विधान की बात आती है, तो काल लब्धि की बात आती है; और उपादानपरक की बात आती है, तो पुरुषार्थ की बात आती है। पर ये दोनों एक दूसरे के सापेक्ष हैं। 

पण्डित टोडरमल जी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में एक बहुत अच्छी बात लिखी कि:-

“तेरा यदि यही विधान है, तो तू कुछ भी कार्य का उद्यम मत कर। तू खान-पान, व्यापार आदि में उद्यम करे है और यहाँ होनहार बतावे है, तो जानिए कि तेरा सांचा सिद्धांत नहीं है। काए झूठी मानाधिकते बातें बनावे है।”

आगे वो एक स्थान पर लिखते हैं “किस कारन ते काल लब्धि? होनहार तो कुछ वस्तु है नाए। जिस समय काल भया सोई काल लब्धि और कार्य का होना ही होनहार है।”

अर्थात होनहार और काल लब्धि के सहारे बैठे रहने से कोई लाभ नहीं होगा। आप जब भी कुछ करें तो पर्याप्त पुरुषार्थ करें और उस धरणा के हिसाब से करें कि ‘मेरे पुरुषार्थ के अनुरूप ही मेरा परिणाम आयेगा।’ लेकिन पर्याप्त पुरुषार्थ करने के बाद भी अनुकूल परिणाम न आये तो ये मानो कि शायद अभी सही समय नहीं आया है। उसकी प्रतीक्षा करो पर समय की प्रतिक्षा में मत बैठो। 

इसका मैं एक उदाहरण दे रहा हूँ जो धवला का प्रसंग है। धवला में एक प्रसंग आता है कि एक अनादि मिथ्या दृष्टि जीव उसके लिए शब्द लिखा कि:-

अनन्त संसारियो अनादि मिथ्या दृष्टि समत्त परिणाम महापेन की करणम् कादून अनन्त संसारम् बलाययून अद्धपग्गलः परियठ मेत्रकदो। 

अर्थात एक अनादि मिथ्या दृष्टि जो अनन्त संसारी है, उसने सम्यक्त्व रूप परिणाम की प्रधानता से अनन्त संसार को छेद कर अर्द्ध पुदगल परिवर्तन मात्र कर लिया। पूरे संसार को कितना किया अर्द्ध पुदगल परिवर्तन मात्र। यानि अब उसे अर्द्ध परिवर्तन पुदगल काल तक संसार में रहना है। और एक साथ सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र पाकर आत्मा में डूबा और अन्तर मुहुर्त में केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया और मोक्ष चला गया अब बताओ? 

इसलिए आचार्य अकलंक देव ने राजवार्तिक में लिखा है:- 

कालः निर्माच निर्जरायः। निर्जरा के लिए काल कोई नियामक तत्त्व नहीं है।

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