कहा जाता है कि व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार फल मिलता है, तो क्या मकान में यदि कोई वास्तु दोष हो तो उसके कर्म के फलस्वरूप होता है? क्या वास्तु दोष हमें परेशान करता है? मेरे मकान में रसोई और शौचालय की एक ही दीवार है; क्या उसके कारण हमें कोई नुकसान होगा? ऐसे में हमें क्या करना चाहिए कृपया मार्गदर्शन करें।
वास्तु क्या है? पहले इसे समझिये। वास्तु एक वैज्ञानिक सिद्धांत है। चुंबकीय तरंगों के प्रवाह से पूरा वातावरण प्रभावित होता है और उनका प्रवाह अपने हिसाब से होता है। आप अपना घर आदि कुछ भी बनाते हैं, यदि उसको ध्यान में रखते हैं तो वह प्रवाह ठीक बना रहता है और उसके ठीक बने रहने से हमारे ऊपर उसका सही असर होता है और वह ठीक नहीं है, तो गलत हो जाता है। चुंबकीय तरंगों का प्रवाह, जो कि पौद्गलिक प्रवाह है, जब वह प्रवाह हमारे शरीर से जुड़ता है, तो हमारे शरीर के रसायनों को प्रभावित करता है। हमारे शरीर के रसायन जब प्रभावित होते तो हमारे कर्मों की रसायन प्रभावित होते है। हमारे कर्मों के रसायन जब प्रभावित होंगे तो सुख-दुख के अनुभव में अंतर आएगा। इस हिसाब से अगर देखा जाए तो एक तरफ से वास्तु की शुद्धि रखने से हम अपने कर्मों की अनुकूलता बिठा सकते हैं। लेकिन केवल वास्तु को शुद्ध कर लेने से कर्म नहीं बदलते। वास्तु एक घटक है। हमारे यहाँ कहा गया कि-कर्म अपना फल द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के हिसाब से देता है। आपने वास्तु के हिसाब से अपना घर मकान बनाया तो उसमें केवल क्षेत्र शुद्धि की, पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धि तो अभी बाकी है।
मेरा अनुभव यह बताता है कि सबसे ज्यादा जोर भाव का होता है। उसी घर में बाप-दादा पनप गए तब कोई वास्तु दोष नहीं था और आज तुम्हारा व्यापार फेल हो गया, परिवार में कोई बिखराव हो गया तो वास्तु दोष! १०० वर्ष से जो घर चढ़ता रहा तब वास्तु दोष नहीं दिखा और अब उतरने लगा तो वास्तु दोष हो गया! हालाँकि वास्तु के ग्रंथ भी कहते हैं कि जब मनुष्य के स्टार(सितारे ) बुलंदी पर रहते हैं, तो वास्तु दोष काम नहीं करते। इसका मतलब क्या है, कर्मोदय के आगे वास्तु का भी बहुत जोर नहीं चलता। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में क्षेत्र की शुद्धि के साथ द्रव और काल की शुद्धि को भी रखो और भाव को तुम अपने साथ रखो।
इसलिए मुझसे आप पूछो तो, वास्तु के विषय में मैं इतना ही कहूँगा कि-मैं वास्तु को मानता हूँ पर वास्तु का हव्वा नहीं! जब वास्तु चलन शुरू हुआ, तब मैंने वास्तुशास्त्र को खूब पढ़ा। १९९२ में मैंने एक वास्तु पर पुस्तक लिखी ली थी, सारे रेखा-चित्र तैयार कर लिए थे, बाद में मैंने उसे एक इंजीनियर को दिया एस. के. जैन को, उन्होंने वास्तु विमर्श के रूप में उसमें बहुत सारी चीजें जोड़कर के पुस्तक तैयार कर ली। पर उसके बाद मैंने उसे दो कारणों से गौण कर दिया। एक तो उसमें जितने भी वास्तु के सिद्धांत मुझे देखने को मिले वह मौलिक रूप से जैन वास्तु के नहीं थे। आज भी जितने भी वास्तु की बातें की जाती है एक भी जैन वास्तु के अनुरूप ग्रन्थ नहीं है, चाहे ठक्कर भेरूमल का ‘प्रसाद मंडन’ भी क्यों ना हो। सब संकलित है इधर-उधर से, क्योंकि वास्तु लोक शास्त्र था और लोक शास्त्र को लौकिक तरह से लिया गया। दूसरी बात,जब मैंने वह पढ़ा तब मैं नया-नया था, जो कुछ देखता था सो सीखता था, उतना अनुभव भी नहीं था, मैं तो एक छोटा बच्चा था, मैं किसी के घर आहार आदि करने के लिए जाऊँ तो उसका वास्तु देखने का मन हो जाए, दिमाग में विकल्प आ जाये कि इसका यह गड़बड़, उसका वह गड़बड़! १-२ को बता भी दिया मैंने, तो उनके दिमाग में कीड़ा बैठ गया क्योंकि उपाय उनके पास था नहीं! “महाराज ने बताया इसलिए गड़बड़ है।” तब एक दिन मेरे मन ने कहा कि ‘यह विद्या तेरे काम की नहीं है, इसको हाथ जोड़!’, उस दिन से मैंने हाथ जोड़ लिया। तबसे मैं घर की वास्तु में कभी रुचि नहीं रखता, मंदिर की वास्तु में जितना आवश्यक उतना ध्यान रखता हूँ।
लेकिन वास्तु के विषय में आज बहुत धंधा चालू हो गया, एक से एक धंधेबाज घूम रहे हैं बाजार में। क्योंकि आदमी परेशान होता है और जो सामने वाला बोलता है उसके अनुरूप वह करने लगता है। कई तरह की सलाह- ‘यह तोड़ो, वह फोड़ो, यह लगाओ, वह करो, ५० तरह के टोटके बाजी भी आ गए। इसलिए मैं आप सबको सलाह दूँगा, जब भी आपके जीवन में कोई अनिष्ट प्रसंग आए, वास्तु के हिसाब से अगर नया बनाना हो तो यथासंभव वास्तु का प्रयोग करो और पुराना बन गया है, तो वास्तु वालों से तब तक ना मिलो जब तक उसे पूरा बदलने की मानसिकता ना हो और ऐसे वास्तुविद को पकड़ना जो निर्लोभी भी हो और authentic भी हो अन्यथा तुम फँस जाओगे।
वास्तु में सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है, तो एहसास का। सम्मेद शिखरजी में जहाँ गुणायतन बन रहा है, जिस समय उस ज़मीन को देखा गया, तो ज़मीन को देखकर लोगों ने बोला इसमें बीच में नाला है, पूरब की तरफ उत्तर की तरफ ऊँचा पहाड़ है और यह बिल्कुल नीचे धँसा हुआ है, यह जमीन वास्तु के योग्य नहीं है। मुझे दिखाने ले गये, मैं खड़ा हुआ और वह मुझे खड़े होते ही ऐसे लगा कि धरती हँस के कह रही है कि ‘जो करना है यही कर लो।’ हमने कहा “बढ़िया जगह है, इसको आगे बढ़ाओ, यह जगह मिलती है, तो छोड़ना नहीं है।” जगह ले ली गई। एक सज्जन थे जो कमेटी के मेंबर थे, थोड़ी वास्तु में रुचि रखते थे, बोले “यह पहाड़ है दोनों तरफ; बीच में नाला है।” हमने कहा “इन पहाड़ों से बड़ा हमारा सम्मेद शिखर पहाड़ है दक्षिण में, उस से ऊँचा क्या है? कोई चिंता करने की बात नहीं है। भगवान की कृपा से जो होगा अच्छा होगा।” आज गुणायतन पूरे विश्व में अपना एक अलग स्थान बनाए हुए है। इसलिए मैं आप सब से कहूँगा वास्तु को उतना ही WEIGHT (वजन ) दीजिए जितना देना है। जरूरत से ज्यादा आप किसी के पीछे पड़ोगे तो आपको अंधविश्वासों का शिकार बनना पड़ेगा, नुकसान भी उठाना पड़ सकता है।
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