आचार्य श्री के अप्रमत्तव का उदाहरण!

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शंका

मैं आचार्य महाराज के पास गई थी, उनका मुझे बहुत थोड़ा सा ही सानिध्य प्राप्त हुआ था। लेकिन मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि मैं उसका वर्णन नहीं कर सकती। लेकिन आपको तो उनसे शिक्षा-दीक्षा सब मिली और उनका बहुत सानिध्य प्राप्त हुआ, तो उन अनुभूतियों के कुछ अंश सुना दीजिये।

समाधान

आपको ४ दिन का सानिध्य पाने के बाद अन्दर से प्रसन्नता हो रही है और हमने उनका सानिध्य पाया तो प्रसन्नता ही नहीं, पवित्रता प्रकट हो गई और उसी का परिणाम है कि आज मैं साधु हो गया। 

गुरु के सानिध्य की जो घड़ियाँ होती हैं, वे अद्भुत होती हैं। मैं क्या कहूं, उनके नज़दीक रहने का मुझे बहुत सौभाग्य मिला। जब तक मैं संघ में रहा, मेरा रात्रि विश्राम उनके चरणों में ही रहा। ब्रह्मचारी अवस्था से लेकर मुनि अवस्था तक संघ में बहुत कम ही ऐसा समय रहा जब मैंने उनसे पृथक किसी दूसरे स्थान पर शयन किया। मैंने उनकी हर क्रिया, हर चर्या, हर प्रवृत्ति में इस बात को बहुत अच्छे तरीके से अनुभव किया कि वे बड़े अप्रमत्त हैं, निस्पृही हैं, अध्यात्मनिष्ठ हैं, दूरदर्शी हैं, सकारात्मक हैं, मैंने उन्हें जिस-जिस एँगल से देखा, हर एँगल में मुझे बहुत कुछ देखने को मिला, बहुत कुछ सीखने को मिला। 

उनकी अप्रमत्त का उदाहरण मैं आपको बताना चाहता हूँ कि वे कितने अप्रमत्त- मतलब “जागरूक” हैं, अपनी चर्या में, अपनी क्रिया में। शाम का समय था, गुरुदेव के पास बैठा था, पाटे की आवश्यकता थी, मैंने एक ब्रह्मचारी से कह दिया कि ‘भैया पाटा ले आओ। उन्होंने मुझे टोकते हुए कहा- “किससे पाटा बुलवा रहे हो?, उसके पास पिच्छी है क्या? कैसे लेकर आएगा?” मुझे सीख मिली, मैं तत्क्षण गया, अपने हाथ से पाटा उठा कर के लाया। मैं उस समय मुनि था। ये अप्रमत्तता, यह जागरूकता उनके अन्दर होती है। बहुत सारी कहानियाँ है, अगर मैं बोलना शुरू करूँगा तो पूरा सत्र इसी मैं लग जायेगा।

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