मुझे धर्म करने में, मुनियों की सेवा करने में जो अनुभूति होती है उसको में शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता। पर मेरे बच्चे ये बोलते हैं कि ‘किसी भी चीज की अति या जो नशा होता है वो बुरा होता है’; तो इसमें मुझे क्या करना चाहिए?
अति बुरा होता है, ठीक है लेकिन अच्छे कार्य की अति कभी बुरी नहीं होती है। अच्छे कार्य में जितना करो अच्छा है। लेकिन इसमें एक सावधानी रखो कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप मुनियों की सेवा में इतने रम जाते हो कि अपने घर-परिवार, व्यापार-धंधे को ही भूल जाते हो? जरूरत से ज़्यादा धार्मिक मत बनो, कई बार जरूरत से ज़्यादा धार्मिक होने के परिणाम बहुत बुरे निकलते हैं।
मैं एक स्थान पर था, एक बहन जी थी जिनके पति अल्प आयु में ही चले गए। पति के जाने के बाद उन्होंने अपने आपको मोड़ा और मोड़ने के बाद पूरी तरह से वो धर्म ध्यान में जुट गईं और धार्मिक-सामाजिक कार्यों में अग्रणी स्थान बना लिया; शिविर लगाना, अन्य कार्य करना इत्यादि। लेकिन उनको इस बात की तकलीफ थी कि उनके दो बेटे थे और दोनों धर्म से विमुक्त थे। एक दिन उन्होंने आ करके मुझसे कहा कि ‘महाराज जी मुझे तकलीफ है कि मैं सबको रास्ते पर लगा देती हूँ, मेरे बेटों पर मेरा कोई जोर नहीं चलता, क्या करूँ? आखिर मेरा कौन से पाप का उदय है?’ जब उन्होंने मुझसे कहा, हमने कहा “देखो कभी समय आएगा तो तुम्हारे बेटे से बात करेंगे”। पर बेटे आते ही नहीं थे, मन्दिर के सामने ही मकान था। एक दिन उनके यहाँ चौका लगा, हमारा आहार हुआ और दोनों बच्चे आहार देख रहे थे। रविवार का दिन था, मैंने उनको अपना कमंडल पकड़ा दिया, अब तो आना ही पड़ता, दोनों आए और जैसे आकर बैठे, तुरन्त माँ ने कहा ‘महाराज इससे कहो कि धर्म करे, ये धर्म नहीं करता।’ मैंने सबको शान्त किया, कहा “थोड़ी देर रुको, बाद में बात करूँगा।” सबके जाने के बाद मैंने जब उस बच्चे से पूछा कि “भाई मामला क्या है, तेरी मम्मी तुझसे दुखी है, तू धर्म क्यों नहीं करता?” उसने छूटते ही कहा, ‘महाराज जी मुझे उस धर्म से एलर्जी है, जिसने हमसे हमारी मम्मी को छीन लिया।’ मैं चौंका, “क्या कह रहे हो तुम?” बोले ‘महाराज जी हम धर्म से रूचि रखते हैं, पर मम्मी से कहिए उनके बेटों के प्रति भी तो उनका कोई धर्म है। महाराज जी! मम्मी सुबह चार बजे मन्दिर आ जाती है और नौ, साढ़े-नौ के पहले घर नहीं लौटती। उसको मन्दिर में पूजन, पाठ, स्वाध्याय, प्रवचन सब करना है। हम लोग ऑफिस जाते हैं, अपने हाथ से चाय बनाते, नाश्ता करके जाते हैं। और जब हम अपने ऑफिस से लौट कर आते हैं तो लगभग साढ़े-नौ, पोने-दस बज जाते हैं, आते हैं तो भी माँ मन्दिर में ही मिलती है। दस बजे के बाद माँ आती है और सीधे सो जाती है। हमारी माँ हमको मिलती नहीं, तो महाराज जी हमको इस धर्म से चिढ़ हो गई कि ऐसा भी क्या धर्म कि हमारे पिता तो गए सो गए, माँ भी चली गई।’ तब मुझे लगा कि इन बच्चों की बातों में दम है, मैंने उसकी माँ को बुलाया और कहा ऐसा करना ठीक नहीं है। तुम्हें अपने बच्चों के प्रति भी अपना धर्म निभाना चाहिए। धर्म-ध्यान में समय दो, पर परिवार के लिए भी समय दो, बच्चों के लिए भी समय दो। कहीं अगर ऐसी अति है, तो आपको भी सावधान होने की आवश्यकता है।
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