बच्चों को सम्पत्ति नहीं, संस्कार दें!

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शंका

कैसी विडम्बना है कि जिसके पास सन्तान नहीं है वो भी दुखी हैं। और किसी के पास चार-पाँच सन्तानें हैं, वे भी। उनकी शादी ब्याह हो चुकी है। माँ-बाप के पास जो पैसा था वो बच्चों पर लगा दिया। पर अब माँ-बाप की ऐसी दशा है कि एक बेटा माँ को रखता है और एक बेटा बाप को। जबकि अन्त समय में दोनों को एक दूसरे का साथ चाहिए?

समाधान

आपने अपनी वेदना प्रकट की है। आजकल ये आम बातें हो गई हैं। मैं तो एक ही बात कहूँगा इसमें कहीं न कहीं दोषी आप भी हैं। बच्चों को अच्छी सम्पत्ति मिले, माँ-बाप इसकी जिंदगी भर कोशिश करते हैं; बच्चों को अच्छे संस्कार मिलें ऐसा प्रयास कहाँ करते हैं? आप यह प्रयास करें, अपने बच्चों को सम्पत्ति देने की अपेक्षा संस्कार दें, संस्कृति दें। सम्पत्ति तो पा करके फिर भी कोई खो सकता है लेकिन संस्कार पा ले तो कोई खो नहीं सकता। अगर आप बच्चों को संस्कृति देंगे तो वह कुछ न होने पर भी बहुत कुछ कमा लेगा और उनके पास संस्कृति नहीं है, संस्कार नहीं है, अपार सम्पत्ति भी हो तो बर्बाद कर देंगे तो अपनी सन्तान को आप सम्पत्ति मत दीजिए, संस्कृति दीजिए।

मैंने एक पत्र पढ़ा था, सुभाष चंद्र बोस का, उन्होंने अपनी माँ को लिखा, बच्चों के लिए बहुत प्रेरक है। उसका भाव बता रहा हूँ, अपनी माँ को एक देशभक्त सपूत ने कैसा पत्र लिखा! भाव केवल यह था कि माँ तुम क्या चाहती हो पढ़-लिख करके मैं एक अच्छा अफसर बनूँ या एक बड़ा उद्योगपति बनूँ या एक बड़ा अधिकारी बनूँ या बड़ा आदमी बनूँ अथवा देश की सेवा करके अपने आपको कुर्बान कर दूँ, क्या चाहती हो? तुम्हारा गौरव कब बढ़ेगा, जब लोग मेरे कृत्यों को देखकर तुम्हें पूजेंगे तब या मेरी सम्पत्ति को पाकर के लोग झूमेंगे। माँ मुझे पता है तुम्हें मेरे उन कृत्यों से खुशी नहीं मिलेगी जिससे कि लोग मेरी प्रशंसा करें, तुम्हें उन कृत्यों से जरूर खुशी मिलेगी जो हमें लोक पूजा के रास्ते पर बढ़ा दे।

मैं आप सब से कहना चाहता हूँ सम्पत्ति ही नहीं, संस्कृति व संस्कार दें अन्यथा स्थिति बहुत दयनीय होती जा रही है। आजकल आश्रमों में सबको ठौर ढूंढना पड़ रहा है जो बहुत ही चिंतनीय है।

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