सल्लेखना या संथारा की प्रक्रिया कितनी पुरानी है और क्यों ज़रूरी है?

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शंका

सल्लेखना या संथारा की प्रक्रिया कितनी पुरानी है और क्यों ज़रूरी है?

समाधान

जब से जैन धर्म है, तब से सल्लेखना-संथारा है और जब से संसार है तब से जैन धर्म है। यह अनादि कालीन प्रवृत्ति है। 

हमारे जैन धर्म में अनादि काल से सल्लेखना और संथारा की प्रक्रिया है क्योंकि सल्लेखना के बिना मुक्ति संभव ही नहीं। हमारे यहाँ शास्त्र यह कहते हैं कि जो व्यक्ति जीवन भर त्याग-तपस्या करता है और सल्लेखना नहीं करता तो सल्लेखना व्रत को अंगीकार किए बिना व्यक्ति की त्याग तपस्या सब निष्फल है। तो यह हमारी साधना का प्राण है, इसे भुलाया नहीं जा सकता। 

हमारे सारे शास्त्र कहते हैं, तीर्थंकर भी अपने तीर्थंकरत्व तक पहुंचने से पूर्व कई भवों में प्रयोपगमन सन्यास तक लेते हैं और तीर्थंकर पर्याय में भी जो उनका अन्त होता है वह पंडित-पंडित मरण है, जो सल्लेखना का सबसे उत्कृष्ट रूप कहलाता है। तो बिना सल्लेखना के मोक्ष नहीं और ऐसा कहा गया कि उत्तम रीति से जो सल्लेखना कर ले वह उसी भव में मोक्ष जाएगा। मध्यम रीति से करें तो वह २-३ भव में मोक्ष जाएगा और जघन्य यानि हलके से हल्के स्तर पर करे और कोई गृहस्थ करे तो को ७ से ८ भव में उसका टिकट कट जाएगा, मोक्ष चला जाएगा। 

बहुत जरूरत है देश को एकजुट होकर के इस विषय पर विचार मन्थन करने की और जो आपत्ति समाज के बीच आई है उसका निवारण करने की। मैं पूरे देश भर की जैन समाज से यह कहना चाहता हूँ कि इस कार्य में पूर्णतः अपने आपको समर्पित कर देना है, झोंक देना है तभी हम अपनी इस परिपाटी को, तभी हम अपने इस व्रत को या तभी हम अपनी इस साधना को या तभी हम अपने इस मोक्ष मार्ग को या तभी हम अपने इस धर्म को बचा सकेंगे और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

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