अपने शील की रक्षा के लिए अगर कोई इंसान आत्महत्या करता है तो वह कहाँ तक उचित है?
आत्महत्या को वैसे तो बहुत बुरा पाप कहा है। लेकिन कुछ प्रसंग ऐसे आते हैं , शायद मैना सुंदरी के साथ भी ऐसा प्रसंग आया था कि, धवल सेठ की कुदृष्टि हुई थी, चंदनबाला की माँ ने आत्महत्या की थी, ऐसे प्रसंग आते हैं।
हमारे भगवती आराधना में एक जिग्घास मरण का भी विधान आता है। तो जब शील की रक्षा का कोई प्रसंग आए और उस समय सामने वाला अपने आप को एकदम असुरक्षित महसूस करे, उस घड़ी में अपने परिणामों की रक्षा करते हुए कोई व्यक्ति ऐसा करता है, तो शास्त्रीय दृष्टि से मैं उसे एकदम अनुचित नहीं कह सकता।
लेकिन फिर भी दूसरा पहलू यह है कि उस समय हम समता रखते हुये सामना करें। क्योंकि जो धर्म को पालता है धर्म उसको पालता है, धर्मो रक्षति रक्षितान, यह स्थिति है। तो इस पर व्यक्ति उस घड़ी भी धर्म के प्रति ढृढ़ता रखे और अपना कर्मोदय जानकर आत्माश्रित हो जाए तो काफी कुछ बचाव हो सकता है। चंदनबाला को तो वेश्याओं के पास तक भेज दिया गया था, वेश्या ने खरीद लिया था। उसे कई प्रकार की यातनाएं सहनी पड़ीं; पर उस घड़ी में उसने आत्महत्या का प्रयास नहीं किया। बाद में उसके जीवन में बहुत बड़ा बदलाव घटित हुआ।
मेरी जो अवधारणा है, आगम की बात को थोड़ा-सा मैं हटकर के कहता हूँ, कि यदि कोई व्यक्ति विवशता में पाप कर ले तो उसे पापी नहीं मानना चाहिए। और किसी व्यक्ति के शील का हरण यदि किसी ने दबाव-प्रभाव वश कवचित-कदाचित कर लिया, तो मौत को अपनाने की जगह गुरु चरणों में जाकर प्रायश्चित लेके उसे साफ करना चाहिए और संयम का रास्ता अपनाना चाहिए। क्योंकि जैसे शील हमारा एक धर्म है, तो अहिंसा परम धर्म है। अगर आत्महत्या कोई व्यक्ति अपने शील की रक्षा के लिए करता है तो वह आत्महत्या है, हत्या नही हिंसा है और किस की हिंसा? स्वयं की हिंसा! यानि एक जीते जागते मनुष्य की हिंसा! इसे मैं प्रशंसनीय या अनुकरणीय नहीं मानूँगा। दबाव प्रभाव वश यदि किसी के साथ ऐसा हो तो उसको अपनाया जा सकता है, और –
पुलातवकुष कुशील निर्ग्रन्थ स्नातका निर्ग्रन्था।
इस सूत्र में जो पुलाक मुनि के बारे में कहा है कि पाँच मूल व्रत और छटा रात्री भोजन त्याग व्रत भी लिखा, इसमें भी प्रतिसेवना हो जाती है, व्रत खंडित हो जाते हैं, “पराभियोगात“, यह किस sense में? कभी कोई ऐसे दबाव प्रभाव वश उनके पाँच व्रत यानी अंहिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच व्रत, कोई particular एक व्रत नहीं कहा, तो उसमें शील भी है। तो किसी मुनि महाराज के साथ यदि कभी कोई ऐसी स्थिति आ जाए तो भी वह भावलिंगी मुनी बने रहते हैं। बाद में प्रायश्चित के द्वारा अपने आप को शुद्ध कर सकते हैं।
तो यह आत्महत्या किसी भी अर्थ में उचित नहीं है। इसे प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। उसे वीरता के साथ उसका सामना करना चाहिए। उसे उपसर्ग मान करके स्वीकार करना चाहिए और उस से मुक्त होते ही आगे बढ़ जाना चाहिए। उस घड़ी में, जब किसी तरह का उपसर्ग है, उस घड़ी में सब प्रकार के आहार पानी का त्याग करके समता भाव रख लेना चाहिए। उस समय यह चिंतन रखना चाहिए कि “शील हरण की क्रिया करने वाला शरीर के साथ वह क्रिया कर रहा है, मेरी आत्मा का भोग तो कोई कर ही नहीं सकता। मैं अस्पृश्य हूँ। मुझे तो कोई छू भी नहीं सकता।” उस घड़ी में समयसार के भेद विज्ञान का स्मरण करने वाले व्यक्ति का शील हरण हो ही नहीं सकता। वह आहार करते हुवे भी अनाहारी है और भोगते हुऐ भी अभोगी जैसी स्थिति है।
अस्पृष्योऽहम्, अरूपोऽहम्, असेप्योऽहम्, यह धारणा अपने अंतर मन में जगा लें तो, मैं कहता हूँ, कोई किसी के साथ चाहे कितना भी बड़ा दुराचार क्यों न कर लें, वो व्यक्ति दुराचारी नहीं, क्योंकि वह मन से उससे जुड़ा नही है।
सेवन्तोविनसेवतिय सेवमानोवीस्सोकोवी कगरन चेट्ठा कस्सविह न पायरिनो तिसो होदी।
तो इसलिए दोनों बातें हैं। यदि कभी किसी के साथ ऐसी आपत्ति आये तो उसे घबराना नहीं चाहिए। आत्महत्या का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए। और इस प्रकार की विवशता के कारण यदि किसी की व्रत, संयम या शील का खण्डन हुआ है तो दूसरे लोगों को उसके प्रति हेय बुद्धि नहीं रखना चाहिए। अपितु उसके प्रति सहानुभूति रख कर के उसे प्रोत्साहित करना चाहिए; ताकि वह पुनः अपने व्रतों में स्थिर होकर अपने जीवन का कल्याण कर सकें, अपना मार्ग प्रशस्त कर सकें।
आपका कार्यक्रम देखता हूं
मन मे एक जिज्ञासा आती है
देखते है कोई पापी की आतंगिलानी होती है तो
देखते है कि जेल में कोई कैदी ने आत्महत्या कर ली
क्या ये सही कदम है कयूकी लोग कहते है उसे जीने का अधिकार नही है और सच भी है उसने दुष्कर्म किये हत्या की हुई होती है ,या उसे भी जीना चाहिए अगर हा तो कयू