चातुर्मास में आचार्य श्री एवं अन्य मुनि महाराजों के इतने पोस्टर छपते हैं, फिर चातुर्मास के बाद वे पैरों में आते हैं तो ये खर्चे नहीं होना चाहिए?
जो करते है उन से बोलो। यह पब्लिसिटी का एक आधार है लेकिन इसे व्यवस्थित रखना चाहिए। आजकल तो रीसाइक्लिंग की प्रोसेस है, तो हर चीज को रीसाइकिल करके आप काम कीजिए ताकि अनादर न हो, यह विवेक का विषय है। धर्म प्रभावना के लिए इन्हें रोकना अच्छी बात नहीं, इसका यह परिणाम है कि आज जन-जन दिगंबरत्व को जानने लगा है। गोमटेश की जब शताब्दी महोत्सव हो रहा था उस समय उनकी तस्वीर छापने के कुछ अखबारों ने आपत्ति की थी तो हमारी समाज के प्रमुख लोगों ने मिलजुल करके प्रयास करके, टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप ने इसमें बड़ी अगुवाई की थी, साहू जी का इसमें महत्त्वपूर्ण रोल था, प्रयास करके यह तय किया कि नहीं, यह छपना चाहिए, इससे हमारे दिगंबरत्व की प्रभावना होती है। हमारे समाज का एक वर्ग जिसमें कुछ साधुजन भी शामिल थे, कहते थे कि इससे अविनय होगा लेकिन उस समय सबने मिलकर यही तय किया कि नहीं दिगंबरत्त्व की प्रभावना करने के लिए हमें इसे स्वीकारना चाहिए और तब यह छपना चालू हुआ तो धड़ल्ले से छपना शुरू हो गया। अतिरेक और अति किसी का नहीं होना चाहिए, विवेक का प्रयोग करना चाहिए, हर चीज को सम्भाल कर रखना चाहिए। आप सम्भाल कर रखो और यदि रखना सम्भव नहीं है, तो उनकी रीसाइक्लिंग की प्रोसेस के लिए भेज दो।
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