जैन होकर रात्रि भोजन करना कितना उचित?

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शंका

आज जब लोगों से पूछते हैं कि ‘आप रात को खाते हैं, आलू प्याज खाते हैं?’ तो जवाब मिलता है कि ‘हाँ खाते हैं क्योंकि हम सच्चे जैनी नहीं है।’ बहुत दुःख होता ये सुनकर कृपया ऐसे लोगों के लिए मार्ग दर्शन दें और हम उन्हें कैसे समझाएं?

समाधान

क्या कर सकते हैं! जब वो खुद ही कह रहे हैं कि वो सच्चे जैनी नहीं है। उससे कहो कि ‘भाईसाहब! सच्चे जैनी हो जाओ! यदि सच्चे जैनी नहीं हो सकते तो कम से कम जैनियों को लजाने का काम तो मत करो।’

 मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि आप के फर्म की कोई goodwill (साख) होती है, तो उस goodwill को आप किसी भी परिस्थिति में खराब करना चाहोगे क्या? जितनी पुरानी आप की फर्म होगी उतनी पुरानी आपकी goodwill! उसको कोई खराब करना नहीं चाहता है। मैं आपसे यहीं कहना चाहता हूँ कि १००-५० साल पुरानी फर्म की goodwill को बनाये रखने की भावना तुम्हारे अन्दर है। २५०० साल पुरानी भगवान महावीर के फर्म की goodwill को क्यों बिगाड़ रहे हो। उसको तो मेन्टेन रखो। जैन हो अपने जैनत्व से सामने वाले को गौरवान्वित करो, ये बहुत बड़ी जवाबदेही है। जैन होकर, जैन धर्म के मर्म को जानकर भी रात्रि भोजन जैसा कृत्य करना कतई शोभास्पद नहीं है। 

मेरे सम्पर्क में कई अजैन लोग हैं जो रात्रि में भोजन नहीं करते है। एक अतुल दुबे सतना के, वे मेरे पास एक दुविधा लेकर आये थे कि वो बेडमिन्टन के खिलाड़ी थे और एक एडवोकेट थे। रात्रि को बेडमिन्टन की आदत, रोज बेडमिन्टन खेलते। खा के खेल नहीं सकते और खेल के खा नहीं सकते। खेलेंगे तो रात हो जायेगी और खा लेंगे तो खेल नहीं पायेंगे। उन्होंने एक नियम ले लिया कि रात्रि में जब हमें कुछ खाना ही नहीं है, तो दिन में एक ही बार खाना, रात को लेंगे तो केवल पेय लेंगे उसके अलावा कुछ नहीं और आज भी उनका नियम चल रहा है। मैं जबलपुर में था। जबलपुर में एक बड़ा आयोजन हुआ सन् १९९७ की बात है और वहीं हमने “दिन में शादी दिन में भोज यही अहिंसा का जय घोष” ये नारा दिया और समाज में रात्रिकालीन विवाह और भोज पर प्रतिबंध लगाने का एक आव्हान किया और समाज ने उसे सिर माथे लिया। लगभग पूरे मध्य प्रदेश, और मध्यप्रदेश में भी बुन्देलखण्ड का सम्पूर्ण क्षेत्र ने इस नियम को स्वीकारा। आज भी वो नियम लोग निभा रहे हैं। उस कार्यक्रम के उपरान्त शहीद स्मारक में एक बहुत बड़ा आयोजन हुआ। लगभग २५-३० हजार लोगों ने सामूहिक रूप से संकल्प लिया। कार्यक्रम सम्पन्न कराने के उपरान्त मैं लॉर्डगंज के मन्दिर में आया तो एक डॉक्टर दम्पत्ति शाम को मेरे पास आये। दोनों ने श्रीफल चढ़ाया। डॉ. एम.डी. मेडिशन थे, वो त्रिपाठी थे और उनकी धर्म पत्नी गाइनोक्लोजिस्ट थी। दोनों एम.डी. और एम.एस. थे। उम्र होगी कोई लगभग ४५-४८ के आसपास! दोनों ने निवेदन किया कि ‘महाराज जी! हम दोनों ने घर की छत से आप के प्रवचन सुने थे। तभी हमने आपको परोक्षरूप से प्रमाण करके रात्रि भोजन का त्याग कर दिया। महाराज श्री! आशीर्वाद दीजिए कि आज से शाम ६.३० बजे के बाद जल भी ग्रहण नहीं करेंगे।’ मैंने पूछा कि ‘आपका ये नियम पल जायेगा?’ तो उन्होंने कहा कि ‘महाराज जी! अहिंसा के पालन के लिए जो करना होगा सब करेंगे। हमें जीव हिंसा से बचना है इतना हमने सुन लिया, और हमें कुछ नहीं चाहिए।’ मैं आपसे पूछता हूँ कि, रात्रि में खाकर गौरवान्वित होने वाले नाम के जैनी से ये जन्म से अजैनी अच्छे हैं और इन से उनको कुछ प्रेरणा लेनी चाहिए। 

मैं आपसे एक बात कहना चाहता हूँ कि मजबूरी में रात्रि को खाना नहीं छोड़ सके तो कोई बात नहीं पर कम से कम रात्रि को खाते समय गर्व का अनुभव तो मत करो। ये सोचो कि ‘मैं अपनी परम्परा, संस्कृति और धर्म के विरूद्ध जा रहा हूँ। ये मेरा दुर्भाग्य है जैनी होकर रात्रि में खा रहा हूँ और कब ये छूटे!’ ये मानो, ये भाव रखो। कम से कम अपने मन को तो कचोटो। लेकिन रात्रि में खाकर गर्व करना और जो रात्रि भोजन का त्याग किये है उनकी हँसी उड़ाना। ये अच्छी बात नहीं है ऐसे लोगों का तो भगवान ही भला करेगा और कोई उपाय नहीं है।

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