गुरुदेव! मैं पेशे से अधिवक्ता हूँ, विधि के अनुसार हमारे यहाँ सत्य अलग है, धर्म के अनुसार सत्य अलग है। कोई हमारे ऑफिस में आता है और वह अपनी बात कहता है। वह प्रश्न जब न्यायलय में जाता है, तब न्यायलय में जब तक कोई साक्ष्य नहीं पेश होता है उसको सत्य नहीं माना जाता। अगर हमने कोई साक्ष्य न्यायलय में प्रस्तुत नहीं किया तो सामने वाला मुकदमा जीत सकता है और वह जो सत्य बात है वह असत्य के द्वारा हो सकता है। ऐसे में फौजदारी के मामलों में कानून यह है कि अगर कोई मुलजिम फौजदारी अधिवक्ता के घर आए तो कार्यपालिका और विधि के अनुसार, उस अधिवक्ता को ‘डिफेंस लॉयर’ (defence lawyer) के रूप में खड़ा होना पड़ेगा और उसे बचाने का पूर्ण प्रयास करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में जब मुकदमों का चयन करना हो तो कैसे चयन करें कि यह जो प्रार्थी हमें कह रहा है वह सत्य है या जो पुलिस ने एक रिकॉर्ड बनाया, वह सत्य है? मार्गदर्शन करें।
मैं समझता हूँ कोई भी व्यक्ति क्राईम करता है, जब घटना क्रम को अधिवक्ताओं के सामने रखता है, तो अधिवक्ता उन सब चीजों को समझ तो जाता ही है। आप को यह लग रहा है कि इस व्यक्ति ने अपराध किया है और आप उससे कह रहे हैं -“चिंता मत करो! मैं सब देख लूँगा, क्योंकि कोई साक्ष्य नहीं है। तुमने अपराध किया यह सत्य है, किन्तु साक्ष्य न होने की वजह से तुम निरपराध हो, यह कोर्ट कहेगा।” तो आपने वह केस लिया, केस में सामने वाले को जिता दिया, तो आपने क्या किया? एक अपराधी के अपराध के समर्थन का अपराध किया। यह पाप है।
मैं एक घटना सुनाता हूँ, हमारे यहाँ इसलिए कानून को अन्धा कानून कहा जाता। १९९९ की बात है, हमारा भोजपुर में चतुर्मास हो रहा था और वहाँ अखबार आया, उन दिनों मैं अख़बार पढ़ता था। अखबार में पहले पेज में एक साथ दो समाचार छपे थे। एक में लिखा था, ‘अदालत परिसर में खूनी खेल खेलने वाले सभी अभियुक्त बाइज्जत बरी’ और दूसरा समाचार था, ‘एक गर्भवती महिला से बलात्कार कर हत्या करने के आरोप में ५१ को उम्रकैद’। उस दिन का संपादकीय था “आह और वाह!” मैं उसे पढ़ ही रहा था कि दूसरा जजमेंट देने वाली डॉ विमला जैन, जो उन दिनों रायसेन सत्र न्यायालय की न्यायाधीश थी, उन्होंने यह फैसला दिया था, वे आयीं । मैंने कहा -“विमला जी! यह फैसला आपने दिया?” उन्होंने कहा- “जी महाराज जी! और मैं इसीलिए आपके पास आयी। महाराज जी! मैं जैन हूँ, अन्यथा उस महिला के साथ जिस तरह का क्रूर कृत्य उन लोगों ने किया था, उनको फाँसी की सजा भी कम थी। मेरे ऊपर बहुत प्रेशर आया, प्रलोभन आया, अनेक तरीके से लोगों ने दबाव दिया, पर मेरा मन नहीं गवारा। मैंने फैसला किया। फैसला लिखने के साथ ही मैंने ५ दिन की छुट्टी दे दी कि आपके पास रहूँगी, चौका लगाऊँगी, ताकि मन शान्त होगा।” वह भोपाल से मेरे पास आ गईं। यह अदालत है। गैंगवार हुआ अदालत परिसर में, लेकिन साक्ष्य नहीं मिला सब छूट गए। यह अदालत है।
अदालत के बारे में आप ने कहा है कि वहाँ तो साक्ष्य ही सत्य होता है, साक्ष्य सही हो तो और गलत हो तो। लेकिन ध्यान रखना, यहाँ का कानून अन्धा हो सकता है, कुदरत का कानून कभी अन्धा नहीं होता। इस अदालत में तुम फैसला अपने मनोनुकूल कर सकते हो लेकिन जिस घड़ी ये फैसला लिखवाया जाता है, उसी घड़ी तुम्हारे भाग्य का भी फैसला लिख जाता है। वहाँ जिरह करने के लिए कोई दूसरा वकील भी खड़ा नहीं होगा, तुम्हें स्वयं उसमें भागीदार होना पड़ेगा और उसका फल भी भोगना पड़ेगा। इसलिए अगर कोई अपराधी है और आपको पता चल रहा है कि अपराधी है, उसे निरपराध घोषित करने की कोशिश कभी मत करो, चाहे उसमें तुम्हें कितना भी लाभ क्यों न मिले। हाँ तुम उससे कह सकते हो, “कानून की सीमाओं के भीतर रहते हुए, तुम्हारी सजा को मैं जितना कम करा सकूँगा, कराऊँगा, लेकिन मैं तुम्हें मुक्त नहीं करा सकता।” यही आपका धर्म है।
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