मैं पेशे से एक वकील हूँ। वकील के नाते क्लाइंट के हित में झूठ भी बोलना पड़ता है, ऐसी अवस्था में पेशे में रहते हुए धर्म का पालन किस प्रकार से किया जा सकता है?
सच्चे अर्थों में देखा जाए, जो अभिवक्ता या अधिवक्ता होते हैं, वे सत्य के पहरी होते हैं। वकील न्याय दिलाने के लिए और अन्याय से बचाने के लिए लड़ता है। यदि कोई वकील व्यक्ति को सही राह दिखाता है और अन्याय से बचाता है, तो मैं समझता हूँ कि वो व्यक्ति धर्म युद्ध को लड़ता है; और उसको लाभ दिलाता है तो ये एक पेशा हो गया। जब कोई पेशा होता है, तो उसे फिर totally( पूरी तरह से) professionally(व्यावसायिक दृष्टि से) देखा जाता है। इस कारण इसमें विकृतियाँ भी आ गई हैं। यदि एक अधिवक्ता ये जान रहा है कि ये व्यक्ति की वास्तविकता है और इसके साथ अन्याय हो रहा है, उसके लिए अपनी पूरी ताकत लगाकर लड़ता है, यही उसका धर्म है। यदि कोई व्यक्ति निरपराधी को फँसा रहा है और आप उसे छुड़ा रहे हैं, ये आपका बहुत बड़ा धर्म है। यदि कोई अधिवक्ता ये जानता है कि ये सम्पत्ति इसकी नहीं है फिर भी ये कह रहा है कि “चिन्ता मत करो”; जान रहे हो कि आदमी बहुत अपराध कर रहा है उससे कह रहे हो कि -“चिन्ता मत करो! Bail (ज़मानत) तो हम दिला देंगे इसमें कुछ नहीं होगा।”- ये अधर्म है।
प्रोफेशन के साथ धर्म यदि करें, तो ये देखकर कि हम वह ही केस लेंगे, जिसमें सच्चाई हो, मैं न्याय के लिए लडूंगा और न्याय दिलाऊँगा। यदि कोई भी अधिवक्ता इस तरह के केस को लेता है। वो न्यायालय में जाकर भगवान की पूजा करता है, भगवान का मार्ग दिखाता है। लेकिन इसका जो दूसरा पक्ष जो इसका रूढ़ हो गया। दुनिया में सबसे ज्यादा उसकी ही चलती है, तो उल्टे-सीधे सभी केस को सुलटा दे। ये समय बदल गया, ये पूरी तरह से प्रोफेशन हो गया जो ये एक प्रकार का पाप है।
वकील साहब हमने बचपन में एक कहावत सुनी थी। डॉक्टर, पुलिस और वकील के पास ‘हाय’ का पैसा होता है। मतलब लोग मजबूरी में इनके पास जाते हैं और खुश होकर के पैसा नहीं देते हैं क्योंकि वे फँसते हैं और पैसा देना पड़ता है। लेकिन यदि कोई वकील व्यक्ति को न्याय दिलाता है, तो मैं कहूँगा कि वो हाय का पैसा नहीं है, धर्म का पैसा है, वो सबको खुशी दिलायेगा। गाँधीजी ने वकालत की, जिंदगी में भी सत्य का प्रयोग किया और उन्होंने सत्य के बल पर अपराध को स्वीकार करते हुए उसकी कम सजा दिलवायी। लोग बोलते हैं कि “महाराज! आज के युग में तो ये प्रैक्टिकल नहीं है” अब प्रैक्टिकल क्या है? और क्या नहीं है? मुझे नहीं पता! पर हमारा धर्म, हमारी संस्कृति हमें क्या बताती है? ये बात मैं आप सब से कहना चाहता हूँ। ये वकालत का पेशा भी धर्म है। न्यायालय न्याय का मन्दिर है। न्याय भी धर्म की एक पर्याय है। लेकिन आजकल ऐसा नहीं होता।
फिर मैं एक और बात कहना चाहता हूँ, यदि आप धर्म करना चाहते हैं। आपके बहुत सारे केस ऐसे होते है जो जबरदस्ती खिंचते हैं। जिसमें कोई जान न हो, भाई-भाई के केस हो, सम्पत्ति के विवाद को लेकर, अन्य पारिवारिक समस्या को लेकर, पति-पत्नी के केस को लेकर… मैं आप और आप जैसे सभी अधिवक्ताओं को सलाह देना चाहता हूँ कि आप इस प्रोफेशन (पेशा) में धर्म करके पुण्य कमाना चाहते हैं तो अपने क्लाइंट को ऐसी advice (सलाह) दें कि उनकी मति सुधर जाए और केस लड़ने की जगह समझौते का रास्ता अपना लें। ऐसा करने से आप न्याय दिलाते हैं तो एक घर में उजाला होता है और दोनों के बीच में प्रेम बनाते हैं, तो दोनों घर में उजाला हो जाता है। तो वकील ऐसा करें मैं जानता हूँ कि यदि आज कोई वकील ऐसा करेगा तो उसको दिन भर मूंगफली खाकर के बिताना पड़ेगा। कोई केस नहीं आयेंगे। इसलिए बन्धुओं जो सच्चाई है वो सच्चाई है।
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