श्रावक के संस्कारों के शंखनाद में बेटियों को तो संस्कारित किया जाता है, पर हम माता-पिता का क्या? जो बच्चों को 40-45 की आयु हो जाने पर भी हम समय से उनका विवाह नहीं करवा पाते हैं। ऐसे में हमें कोई रास्ता दिखाएँ।
मुझसे शादी करने के संस्कार मत पूछो, मैं दीक्षा लेने के संस्कार जानता हूँ। यह समाज के बीच एक बहुत गम्भीर समस्या है। आजकल छोटे-छोटे गाँवों में लड़के अनब्याहे बैठे हैं। कई जगहों की दशा तो यह है कि उनको लड़कियाँ एक प्रकार से दलालों के माध्यम से अनुबंधित करके लानी पड़ रही हैं। ‘खरीदकर’ लाने जैसे शब्द का प्रयोग तो मैं नहीं कर सकता, लेकिन क्रिया लगभग वैसी ही है। ये बहुत खतरनाक है और ये हमारे समाज के लिए भयंकर भी है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो फिर गाँव में लोग कहाँ रह पाएँगे? जिनका अच्छा व्यापार है, जहाँ सब कुछ व्यवस्थित है, जिन मन्दिर हैं, धर्मायतन हैं, वहाँ अगर कोई लड़की नहीं देना चाहेंगे, तो कैसे काम चलेगा? मैंने पहले भी कहा था कि लड़कियाँ छोटी-बड़ी जगह न देखें, अच्छे वर और अच्छे घर की तलाश करें। ये प्रवृत्तियाँ बढ़नी चाहिए।
जब मैं विहार करके आ रहा था तो वाराणसी और इलाहाबाद के पास कुछ गाँव थे, उनमें से एक गाँव है मझमा, एक गाँव है चप्पहा, एक गाँव है सरायकी। वहाँ जायसवाल जैन समाज के थोड़े-थोड़े घर, 50 घर, 40 घर, 100 घर आदि हैं। मैंने पूछा कि तुम लोगों के यहाँ बेटियों का विवाह कैसे होता है? उन्होंने कहा – “महाराज हम लोगों ने यह तय कर लिया है कि बेटी उसी को देते हैं जो एक बेटी दिलवाता है।” गाँव के लोग यह तय कर लें कि “हम अपनी बेटी तभी देंगे जब तुम हमको कोई बेटी दिलवाओगे।” लेकिन, क्या करें? गाँव के लोग यह तो चाहते हैं कि “हमारे यहाँ बहू आ जाए”, पर तुम्हारे घर की बेटी शहर में जाना चाहती है, तो कैसा चलेगा? सोच को बदलना होगा और जब तक ऐसी सोच नहीं बदलती, समाज की इस विसंगति को रोका नहीं जा सकता।
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