हम लोग दिन पर दिन judgemental होते जा रहे हैं। cricket का scene नहीं पता लेकिन सचिन तेंदुलकर के style पर हम लोग comment करते हैं। आदमी को जानते नहीं हैं लेकिन उसके बारे में पूरा judgement हम लोग पहले से कर लेते हैं तो हमें कुछ ऐसा गुरुमंत्र दीजिए कि हम लोग judgemental न हों और हम अपने आप को उसी वक्त रोक सके कि हमको यह नहीं करना है?
यह मनुष्य की प्रवृत्ति जैसी बन गई है- दूसरों के बारे में अपनी निर्णयात्मक राय देना। जिज्ञासा होना अच्छी बात है पर निर्णयात्मक राय देना अच्छी बात नहीं है और न हमको अधिकार है। हम दूसरों के विषय में कोई टिप्पणी क्यों करें? हम अपने भीतर देखे, अपने भीतर झांके, अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाना कतई अच्छी बात नहीं होती है। आपने कहा है कि ऐसी कोई tip दीजिए जिससे हम इस judgemental attitude (निर्णयात्मक अवधारणाएँ) से अपने आप को बचा सकें। इसका एक ही तरीका है-खुद को जांचना शुरू कर दें कि हम कितने पानी में हैं, तो दूसरों के प्रति राय देना हम अपने आप बंद कर देंगे। हम औरों को देखते हैं और जब हम खुद को देखने लगेंगे तो हमारे साथ कभी ऐसी स्थिति नहीं होगी। साथ ही साथ हम गुणग्राही प्रवृत्ति अपनाये। प्राय: यह जो निर्णय हमारा होता है, वह दोषों के सन्दर्भ में ज़्यादा होता है। अच्छाई के सन्दर्भ में हम लोग कम सोचते हैं और बुराई के सम्बन्ध में ज़्यादा सोचते हैं। उससे अगर अपने आप को बचाना चाहते हैं तो गुणानुरागी बनें, गुण ग्राहक बनें, गुण गायक बनें, गुण शोधक बनें और गुण वाहक बनें। गुण ग्राहक – किसी की अच्छाई हो तो स्वयं ग्रहण करें। उसको ग्रहण करने के बाद उस अच्छाई का कहीं मौका आये तो बखान करें। हम किसी में देखें तो गुण, जहाँ जो मिले उस गुण को अपने जीवन में आत्मसात करने की कोशिश करें। शोधें, बुराई में भी अच्छाई देखने की कोशिश करें और गुण वाहक एक गुण को दूसरे गुण तक पहुँचाने की कोशिश करें। दोष कहीं हो उसे वही शमन करना शुरू कर दें तो हमारी इस तरह की जो निर्णयात्मक अवधारणाएँ होती है, वह बदल जाएगी।
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