विज्ञान और सोशल मीडिया के दुरूपयोग को कैसे रोकें?

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शंका

विज्ञान ने जितनी भी खोज की है वो मानव उद्धार के लिए की है। फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब आदि पर बहुत सारे रिसर्च संस्थानों की खोजों तथा अन्य संस्थानों-जैसे गुणायतन आदि, के समाचार और प्रवचन मिलते हैं। लेकिन देखा गया है कि विज्ञान की खोज का दुरुपयोग ही ज़्यादा हुआ है। कहते हैं कि ड्रग्स कुछ मात्रा में लेते हैं तो वो एक “stimulant substitute” (उत्तेजक पर्याय) होती है और अधिक मात्रा में लेने पर वह एक प्रकार का नशा बन जाता है। तो लोगों की प्रवृत्ति कैसे बदलें? जो गलत देखते हैं वे अच्छा कैसे देखें?

समाधान

आइनस्टाइन (Albert Einstein) ने Atomic Energy (परमाणु उर्जा) सम्बन्धित आविष्कार किया। उनसे किसी ने पूछा कि आपने ये आविष्कार किया है, क्या आपका विश्वास है कि इससे जनता का कल्याण ही होगा? तो आइन्सटाइन ने जवाब दिया- ‘अवश्य! मेरा पक्का विश्वास है कि जब तक जनता का दिल और दिमाग दुरुस्त रहेगा तब तक इस शक्ति का प्रयोग केवल निर्माण में ही होगा।’ तो दिल और दिमाग को ठीक करना है। 

विज्ञान हमें साधन देता है लेकिन विज्ञान हमारे मन को सुधारने में कही बाधक नहीं बनता। हमारे जीवन के लिए बहुत सारे उपयोगी संसाधन विज्ञान दे सकता है लेकिन हमारे दिल और दिमाग पर नियंत्रण रखने का काम विज्ञान के वश का नहीं है, वो केवल धर्म के साथ ही सम्भव है। इसलिए मैं कहता हूँ हर वैज्ञानिक को धर्म से जुड़े रहना चाहिए, क्योंकि धर्म से शून्य विज्ञान अपूर्ण है और विज्ञान से रहित धर्म अपने आप में अपूर्ण। धर्म को वैज्ञानिक ढंग से अपनाओ और वैज्ञानिक धर्म की background (पार्श्वभूमी) साथ लेकर चलें। ताकि वो अपने संसाधनों का सदुपयोग कर सकें। हर सुविधा का जब तक सीमित उपयोग हो तब तक ही वो “सुविधा” है और उससे जब नियंत्रण खो जाए तो वही “दुविधा” है। 

 अपने दिल और दिमाग पर नियंत्रण कैसे हो वो हमें धर्म सिखाता है। वो हमें संयम सिखाता है। सेल्फ कंट्रोल (स्व-नियन्त्रण) क्या है, ये कौन सिखाएगा? विज्ञान नहीं सिखा सकता। विज्ञान तेज रफ्तार की गाड़ी दे सकता है, आसमान में उड़ने के लिए हवाई जहाज दे सकता है, लेकिन उस गाड़ी पर नियंत्रण करने की बुद्धि देना विज्ञान के बस की बात नहीं है। वो तो अपने पर नियंत्रण की बात है। तो बस बाहर के साधन मिलना सरल है और भीतर के साधन मिलाना बहुत कठिन।

मैं एक पंक्ति में समीक्षा करता हूँ कि, आज विज्ञान के माध्यम से मनुष्य की बाह्य शक्तियाँ तो विस्तीर्ण हुई हैं पर मनुष्य की आन्तरिक शक्ति बहुत क्षीण हुई है। खुद शक्तिहीन सा हो गया है और ये बहुत बड़ी कमज़ोरी है। मनुष्य की स्थिति एक ऐसी लाठी की तरह हो गई है जो ऊपर से रंगी-पुती है और भीतर से खोखली है, जो हमारे किसी काम की नहीं है। तो बस लाठी को रंग पोत कर मजबूत रखो लेकिन उसमें कोई घुन न लगे ऐसी सावधानी भी रखो।

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