मैं टोरंटो (कनाडा) में रहता हूँ। वहाँ पर तीन मन्दिर हैं और प्रत्येक रविवार हम लोग पूजा करते हैं। विषम परिस्थितियों के बावजूद प्रत्येक सप्ताह हम लोग मन्दिर जाते हैं, स्वाध्याय- पूजा तो करते ही हैं, उसके अलावा संयम का कौन-सा रास्ता अपनाएँ जिससे हम सभी को लाभ हो?
धर्म की आराधना देश-काल की परिस्थितियों के अनुरूप करनी चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द ने मुनियों को भी कहा, “क्षेत्रकाल को जानकर के अपनी चर्या करें, आचरण करें।” आप जिस जगह रह रहे हो, मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि वहाँ आप लोग गए और भगवान का मन्दिर बनाया है, पूजा-अर्चना कर रहे हैं। भले ही सप्ताह में एक बार कर रहे हैं, पर आपकी पूजा- अर्चना वहाँ हो रही है, ये अपने आप में बहुत अच्छी चीज है।
रहा सवाल संयम के रास्ते पर आप लोग कैसे बढ़ें? सबसे पहले आप लोगों के आचरण को देख लोग बोलें कि आप जैनत्त्व की कसौटी पर खरे उतरे। ऐसे कोई कार्य न करें जो जैनत्त्व में बाधक हो; मद्य, मांस और मधु का तो प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग प्रत्येक व्यक्ति को कराएँ क्योंकि वहाँ की जलवायु अलग प्रकार की है। मद्यपान वहाँ की संस्कृति में मूल हो गया है, उससे स्वयं और अपनी पीढ़ियों को बचाने का पूरा प्रयास करना चाहिए। प्रथम चरण में इतना हो जाए तो बहुत बड़ी बात है और इसके बाद जैन कुलाचार का वैज्ञानिक तरीके से लोगों को विवेचन करा कर हम उन्हें संयम के रास्ते पर लगाएँ और ये बताएँ कि जैन जीवनशैली कितनी आदर्श जीवन शैली है, इस जीवन शैली को अपनाकर व्यक्ति अपने जीवन में कैसा बदलाव ला सकता है और ये कितनी वैज्ञानिक है? स्वास्थ्य की दृष्टि से, पर्यावरण की दृष्टि से और अध्यात्म की दृष्टि से। जब हम ये बातें तार्किक तरीके से लोगों को बताएँगे, लोग न केवल उसे अपनाएँगे अपितु अपनाकर उसका आनन्द भी उठाएँगे। प्रेरणा देने की जरूरत है, हम उन्हें कहें कि आप वहाँ रहकर प्रतिमा पालन करो, आप बड़े-बड़े नियम लो, तो वो डर जाएँगे, उनको बोलो कि एकदम प्रारम्भ से करें।
मैं तो एक बात कहता हूँ कि “घुटने के बल चलते-चलते पांव पर खड़े हो जाते हैं, छोटे-छोटे नियम एक दिन बहुत बड़े हो जाते हैं।” हम एक साथ सौ मील चलने की बात न करें, एक-एक करके एक हजार मील की यात्रा पूरी करें और उनको बोले कि हम धीमी गति से ही चलें, पर चलें। अगर व्यक्ति की धर्मनिष्ठा गहरी हो तो उसे धर्माचरण में कहीं भी बाधा नहीं आती है। आज भी अमेरिका जैसी जगह में लोग रह रहे हैं और दशलक्षण के दस-दस उपवास भी कर रहे हैं, ये अपनी प्राथमिकता का प्रमाण है। हमारी ऐसी कोशिश होनी चाहिए कि इस तरह का मोटिवेशन लोगों को मिलना चाहिए जिससे लोग धार्मिक गतिविधियों को और धार्मिक आचरण को अपनी उच्च प्राथमिकता पर ले जाएँ, तो बहुत बड़ा बदलाव होगा। प्राथमिकता यदि बदल जाए तो जीवन में कोई कठिनाई नहीं।
आप कनाडा से चलकर सम्मेद शिखर जी आये। वहाँ की इस व्यस्तता भरी जिंदगी से भी समय निकाला, क्यों? क्योंकि ‘मुझे सम्मेद शिखर जाना है वहाँ की वन्दना करनी है’- ये आपकी उच्च प्राथमिकता में था, इसलिए आप आ गए। यदि आपकी प्राथमिकताएँ आपके व्यापार, आपके परिवार आदि तक सीमित रहतीं तो शायद आप यहाँ नहीं आते। इसलिए धर्म को अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए।
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