मनुष्य गृहस्थ जीवन में प्रवेश करके भी धर्म से कैसे जुड़ा रह सकता है?
गृहस्थ जीवन में जिस दिन प्रवेश करें उसी दिन अपना एक निश्चित टारगेट बनाएँ कि मैं कब तक सक्रिय गृहस्थी में रहूंगा, सबसे पहली बात। दूसरी बात, अगर वह गृहस्थ जीवन में है, तो गृहस्थोचित कर्तव्यों का दृढ़ता से पालन करे। देवपूजा, पात्र-दान, स्वाध्याय, सामायिक अपनी शक्ति के अनुरूप जितना बन सके, संयम और साधना का प्रयोग करे। श्रावक के जो षट कर्तव्य बताएँ हैं –
“देव पूजा गुरुपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप:, दानंचेति ग्रहस्थानां षटकर्माणि दिनेदिने।।”
इसे अपने जीवन में चरितार्थ करें। जैसे किसी की २५ वर्ष की उम्र में किसी का विवाह होता है, तो यह तय करें कि मैं २५ साल तक सक्रिय गृहस्थी में रहूंगा। २५ साल तक वो पैसा कमाए, व्यापार करें, घर परिवार की व्यवस्था करें। ५० साल की उम्र पार करते ही, वह धीरे -धीरे विस्तार को समेटना शुरू करे। अब फैलाना नहीं है, अब समेटना है। मैंने पहली पारी में इतना अच्छा स्कोर बना लिया, कि दूसरी पारी में मैदान में उतरने की जरूरत ही न पड़े। तो २५ से ५० वर्ष की अवधि में जितना धन पैसा कमाना है, कमाओ। जितनी दुनियादारी का काम करना है करो। जिसको हम दूसरे शब्दों में कहें, सक्रिय गृहस्थी में रहो। और २५ वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद यानी ५० की उम्र पार करने के उपरान्त आप अपने आपको धीरे-धीरे अन्तरमुख करना शुरू करो। व्यापार-व्यवसाय, घर परिवार, रिश्ते नाते से मोड़कर गुरु समागम, स्वाध्याय, आत्म चिंतन, व्रत संयम की आराधना, त्याग तपस्या की ओर मोडना शुरू करो और १० सालों में अपने आपको ऐसी स्थिति में ले आओ कि ६० साल होते-होते आप सेवा के लिए निर्वृत हो जाएँ। रिटायर्ड हो जाएँ।
आजकल कहानी उल्टी है, लोग टायर्ड हो जाते हैं, पर रिटायर्ड होने की बात नहीं सोचते। ६० साल की उम्र आते आते आप व्यापार व्यवसाय और सांसारिक कार्यों से पूरी तरह अपने आप को मुक्त कर लो। फिर अपने समय का सदुपयोग जितना बने सत्संग में, तीर्थ यात्रा में, सामायिक में, पूजा में, स्वाध्याय में बिताएँ। बचपन ज्ञानार्जन, जवानी धनार्जन, बुढ़ापा पुण्यार्जन के लिए लगाओ। त्याग- तपस्या करके अपने जीवन को इतना मजबूत बना लें कि अन्त में फिर आप सल्लेखना-समाधिपूर्वक इस दुनिया से विदा ले सको। यह क्रम है यदि ऐसा व्यक्ति करता है, तो गृहस्थ हो करके भी अपने जीवन का उद्धार कर सकता है।
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