ऐसा कहा जाता है कि हितोपदेश देने से पुण्य अर्जित होता है। हमारे तीर्थंकर हितोपदेश देते हैं तो उन्हें भी पुण्य अर्जन होना चाहिए और यदि उन्हें पुण्य अर्जन होगा तो मोक्ष की प्राप्ति कैसे कर सकेंगे क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति पुण्य और पाप के खत्म होने से ही हो सकती है?
हितोपदेश देने से पुण्य का बन्ध होता है ये हम लोग कहते हैं। ये एक दृष्टि से सही है लेकिन इतना ध्यान रखना कि कोई भी पुण्य अथवा पाप बन्ध केवल क्रिया से नहीं होता क्रिया के साथ जुड़े हुए भाव से होता है। जब मनुष्य इच्छापूर्वक कोई कार्य करता है और उसके साथ राग और द्वेष होता है, तो उसकी वह क्रिया इच्छा प्रेरित और राग-द्वेष मूलक होने के कारण कर्म बन्ध का कारण होती है। शुभ इच्छा से पुण्य का बन्ध होता है। अशुभ इच्छाओं से पाप का बन्ध होता है। लेकिन वही जब इच्छातीत होकर सहज भाव से कोई कार्य करते हैं तो न उसमें कोई पुण्य होता है और न कोई पाप होता है।
भगवान का जो धर्म उपदेश होता है वह वीतरागता से होता है। हम लोग जब भगवान के गुणों की चर्चा करते हैं तो उनकी तीन विशेषताएँ बताते हैं वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी। सबसे पहला विशेषण क्या है -वीतराग! निस्पृह भाव से, हम भव्यजनों के भाग्य से उनके मुख से वाणी निकलती है, इसलिए भगवान की कोई भी क्रिया इच्छा पूर्वक नहीं होती। इसलिए वे उपदेश देते हैं, विहार करते हैं सब कुछ करते हैं फिर भी कर्म बन्ध से अलिप्त रहते हैं। जैसे किसी के शरीर में चिकनाई लगी हो, तेल लगा हो और वह धूल में गिरे तो मिट्टटी या धूल उसके शरीर में चिपकेगी लेकिन सूखे बदन में कोई धूल चिपकती है क्या? ऐसे ही जिनके अन्दर राग हो, आसक्ति हो उनके लिए कर्म का बन्ध होता है। लेकिन जो इनसे मुक्त होते हैं, वीतराग होते हैं उन्हें कोई कर्म नहीं बन्धता। इसलिए भगवान के हितोपदेश से भगवान की मुक्ति में बाधा नहीं होती है। हाँ, उनका हितोपदेश हम सब की मुक्ति का मार्ग खोल देता है। भगवान कि कृपा है हम पर, कि उन्होंने हितोपदेश दिया और हमें मोक्ष मार्ग दिया।
Leave a Reply