हम भगवान की निस्वार्थ भक्ति कैसे करें?
बस अपने स्वार्थ को गिरा दो, निस्वार्थ भक्ति अपने आप होगी। भूमिका के अनुसार एक निश्चय स्तुति होती है और एक व्यवहार स्तुति। निश्चय स्तुति में आराध्य-आराधक का भेद खत्म हो जाता है। व्यवहार स्तुति में आराध्य, आराधक अलग-अलग होते हैं और नीचे भूमिका में हम भगवान के सामने प्रार्थना करते हैं।
एक है कामना, एक है प्रार्थना, एक है याचना, तीनों में अन्तर है। याचक बनकर के भगवान के चरणों में मत जाओ, असद कामना लेकर भगवान के चरणों में मत जाओ; प्रार्थना लेकर के भगवान के पास जाओगे, तभी भक्ति होगी। याचक बनना, यानी धन दौलत माँगना, कामना रखना यानी अपने मन में कोई सांसारिक इच्छाएँ रखना; प्रार्थना करना, ‘भगवान हमें कुछ नहीं चाहिए, आप जैसे गुण चाहिए, मेरे पाप का क्षय हो जाए, मेरी बुद्धि निर्मल हो जाए, मेरा जीवन विशुद्ध हो जाए, मेरा बेड़ा पार हो जाए’।
ये स्वार्थ क्या है –
स्वास्थ्यं यदाऽऽत्यन्तिक मेष पुंसां
स्वार्थो न भोगः परिभङ्गु-रात्मा।।
भोग स्वार्थ नहीं है, परमार्थ सच्चा स्वार्थ है। तो परमार्थ की कामना को हम परम स्वार्थ मानेंगे, और संसार की कामना को जड़ स्वाद मानेंगे। जड़ स्वार्थ छोड़ो, परम स्वार्थ को अंगीकार करो।
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