जीवन भर सच्चाई, ईमानदारी और सहनशीलता युक्त जीवन जीने वाले मनुष्य के कर्मों का क्या संक्रमण होता है? यदि होता है, तो कैसे और नहीं होता तो कैसे?
देखो, इन्हीं माध्यमों से कर्मों का संक्रमण होता है। हम अशुभ को शुभ से दूर कर सकते हैं। यदि आपके पाप का उदय है और उस पाप को आप शान्त करना चाहते हो तो सबसे सरल तरीका है सहन करना शुरू कर दो। सहन करने से पाप का वेग थम जाता है। एक व्यक्ति पाप को अकुल- व्याकुल होकर भोगता है और दूसरा व्यक्ति पाप को समता से भोगता है। जो पाप के उदय में आकुलता करता है उसको पाप का प्रकोप झेलना पड़ता है और जो पाप के उदय में समता रखता है वह केवल पापोदय झेलता है। पाप का प्रकोप और पाप का पापोदय दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं। भोगना दोनों को पड़ता है लेकिन आपने अपनी अज्ञानता से आकुल-व्याकुल परिणाम कर दिया, प्रकोप आ गया यानी कि उसने आपको तोड़ दिया और आपने ज्ञान का इस्तमाल किया अपनी सहनशक्ति को बढ़ाया, समता दिखाई यानी उस पाप का प्रभाव क्षीण हो गया, आपने उसे डायल्यूट कर दिया, उस पाप की कमर तोड़ दी। तो पाप आपकी कमर तोड़े या आप पाप की कमर तोड़ो ये आपको तय करना है। यदि समता रखोगे, सहनशीलता रखोगे तो पाप की जड़ उखाड़ेगी अन्यथा वो आपको तोड़ ही देगी।
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