सर्दी में गर्मी पाने के लिए रुई की रजाई ओढ़ते हैं। परन्तु कहते हैं ‘रुई से ज़्यादा गर्मी रूपयों में होती है’, तो अमीर व्यक्ति रुपयों की बनी रजाई क्यों नहीं ओढ़ता? अमीर लोग गरीब की रुई की रजाई का हक क्यों छीनते है?
बन्धुओं यही मनुष्य को समझने की बात है। हम रूपयों की कितनी भी गर्मी क्यों न दिखायें, एक सीमा से ज़्यादा रुपयों का कोई मूल्य नहीं। आपके प्रश्न के उत्तर में एक घटना सुनाता हूँ।
सिकंदर जब विश्वविजय के अभियान में निकला तो एक ऐसे नगर में पहुँचा जहाँ एक भी पुरुष नहीं था केवल स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ थी और वे भी एकदम निहत्थी, निर्द्वंद और निरस्त। सिकंदर जब वहाँ पहुँचा तो वो थोड़ा सा सकपका गया। क्या करूँ, क्या नहीं करूँ क्योंकि उसे पुरुषों से लड़ने का अभ्यास था पर यहाँ सामने कोई योद्धा नहीं, नारियाँ थी, वे भी बिना अस्त्र-शस्त्र के। वो कहे भी तो क्या कहे और करे भी तो क्या करे! कुछ न कहना, कुछ न करना सिकंदर के स्वभाव के विरुद्ध था। सिकंदर ने कहा ‘मुझे भूख लगी है रोटियाँ लाओ।’ एक चतुर स्त्री गई और एक थाल लेकर आई, लाल कपड़े से ढका थाल सिकंदर के आगे कर दिया। फिर सिकंदर ने जैसे ही कपड़े को हटाया उसमें सोने के टुकड़े पड़े थे। सिकंदर एकदम अचकचाया, ‘ये क्या, यह सोने को खाया जाता है क्या?’ उस स्त्री ने ऐसी मार्मिक चोट की कि सिकंदर भीतर से तिलमिला उठा। उसने कहा- ‘महान सिकंदर ये सच है रोटियाँ ही खाई जाती हैं, सोने के टुकड़े नहीं खाए जाते हैं। पर यह बताओ क्या तुम्हारे यूनान में रोटियों की कमी थी जो हमारी रोटियाँ छीनने के लिए आ गए?’ सिकंदर को उस गाँव में जो कुछ करना था सो किया, बाद में एक शिलालेख लिखा “ सिकंदर अबोध था इस नगर की नारियों ने उसे बोध दे दिया”। बस मैं आप सब से इतना ही कहूँगा “रुपयों की कितनी भी गर्मी दिखाओ रोटी तो अनाज की खानी पड़ेगी” बस यह बात सीख कर रखो जब इस जमीनी हकीकत को समझ लोगे, सारी रुपयों की अकड़ अपने आप खत्म हो जाएगी।
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