निरन्तर धर्म कार्यों में संलग्न रहने के बाद भी कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ बनती हैं कि उसमें अनावश्यक रोड़े अटकाये जाते हैं, बाधा डाली जाती है। मैं समझ नहीं पाता हूँ कि ऐसी स्थितियाँ क्यों बनती हैं ? जो स्वयं धर्म से जुड़ा हो और यह दावा करता हो कि ‘मैं धर्म का बहुत ज्ञाता हूँ’ और उसके बाद भी वह विघ्न पैदा करता है, तो बहुत पीड़ा मन में होती है। कभी मैंने पढ़ा था “अगर पुण्य के दम पर मैंने कभी पाप की सीमा लांघी, तुम गवाह रहना जग वालों मेरा जन्म अकारथ जाए”
बहुत सुंदर, जिसके अन्दर ऐसी परिणति होती है वह ऐसा कभी नहीं कर सकते, लेकिन दो बातें आप इस सन्दर्भ में समझ लें। एक तो बड़ी पुरानी उक्ति है “श्रेयाँसि बहुविघ्नानि ” अच्छे कार्यों में हमेशा विघ्न आते हैं। हमेशा इस बात को ध्यान रखना- फूल कांटों के मध्य खिलते हैं। अगर धर्मी के जीवन में संकट न आए तो सच्चा धर्म ही नहीं; संकट ही धर्मी की परीक्षा है, विघ्न ही धर्मी के धैर्य की परीक्षा है और परेशानी ही धर्मी की स्थिरता की परीक्षा है। ये तो आते हैं आने चाहिये। संकट और व्यवधान आना स्वाभाविक है पर हमारा पुरुषार्थ तो यह है कि हम उनमें अविचलित बने रहें और यदि हम अविचलित हैं तो ऐसा निश्चित हो सकता है।
दूसरी बात जो आपने पूछी वह बहुत गम्भीर है। बहुत सारे लोग धर्मक्षेत्र में जुड़े रहने के बाद भी अपने आप को धर्मनिष्ठ मानने के बाद भी अन्यों के धर्मकार्य में बाधा डालते हैं। मैं तो आपको कहता हूँ जो दूसरों के धर्म कार्य में बाधा डालता है वो सबसे बड़ा अधर्मी है। अपने आपको चाहे वह कितना भी बड़ा धर्मी क्यों न माने वो नाम का धर्मी है, काम का धर्मी नहीं। सच्चा धर्मी वह है जो दूसरों के लिए सहायक भले न बने पर बाधक सपने में भी न बने इसलिए हमें यथार्थ रूप से धर्मनिष्ठ होना चाहिए।
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