पाप और पुण्य का मोल और माप कैसे होता है?
पुण्य और पाप हमारे जीवन में साफ देखने में आता है। इनके माप के लिए हमें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। हमारे जीवन में सब प्रकार की अनुकूलताएँ दिखती हैं, ये क्यों होती हैं? और प्रतिकूलताएँ दिखती हैं, तो कैसे होती हैं? आपने कभी विचार किया कि आप उठ रहे हो, चल-फिर रहे हो, बोल-बता, खा रहे हो; और सड़क चलते आप को ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जिनका न खाने का ठिकाना है, न पीने का ठिकाना है, कुछ लोग जिनके पास कुछ नहीं है, लाचार हैं, उसके साथ ही विकलांग हैं, विकृतांग हैं और उनकी दशा दयनीय है। इन दोनों स्थितियों में अन्तर का कारण क्या है?
पाप और पुण्य को मापने का सीधा-सीधा तरीका है। व्यक्ति के जीवन में दुःख-दारिद्र दिखती है, तो समझना कि ये कोई पाप का फल भोग रहा है। ये पुण्य और पाप के परोक्ष फल की चर्चा है। पुण्य का प्रत्यक्ष फल सन्तुष्टि है पाप का प्रत्यक्ष फल सन्ताप है। आप अनुभव करें जब भी कोई अच्छा कार्य करते हैं मन में आंतरिक सन्तुष्टि आती है; समझो वह पुण्य का फल है और जब भी आप कोई बुरा कार्य करते हैं मन में शंका आती है, तनाव आता है, तो समझ लो यह पाप का फल है। ये तो हुई पुण्य और पाप के फल की बात। अब आप पूछो कि कौन सी पुण्य की क्रिया है और कौन सी क्रिया पाप की क्रिया है? तो मैं बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि तुम्हारी जिस क्रिया से दूसरों का हित न सधे, समझ लो वह पाप की क्रिया है और तुम्हारी क्रिया से दूसरों का हित सधे, समझ लो वही पुण्य है।
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