हम लोग ९ साल से एक ट्रेन में अनेक तीर्थ यात्रियों को लेकर शिखर-जी की वन्दना करने आते हैं। इस बीच हमारे संघ के सदस्यों से, यात्रियों की सुविधाओं में, व्यवस्थाओं में जाने और अनजाने में कुछ गलतियाँ हो जाती है। हमारी ट्रेन में कुछ यात्री ऐसे भी आते हैं जिन्होंने पहले से रिजर्वेशन नहीं कराए होते हैं और अचानक वो ट्रेन में आकर बैठ जाते हैं, जिनके भाव होते हैं, उनको भी कुछ असुविधाएँ होती है। हम लोगों के द्वारा हुई असुविधाओं और अव्यवस्थाओं में हम लोगों को कितना पाप लगता है और कितना पुण्य? हमें मार्गदर्शन दें?
पाप और पुण्य का सम्बन्ध क्रिया से नहीं, भावों से है। यदि आप लोग यात्री को परेशान करने की दृष्टि से पहले से टिकट न देते हों और बचा के रखते हों, तो पाप लगेगा। और यात्री लोग जब बिना सूचना आते हैं फिर भी आप उनको जैसे-जैसे संभाल लेते है, तो पुण्य कमाते हो।
अब एक सुझाव देता हूँ नौ साल हो गए, ९ साल का अनुभव अब तो पक्का हो गया होगा हमेशा २५% सीटें रिजर्व रखना।
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