श्रावक की समीचीन साधना कैसी होनी चाहिए?
श्रावक यदि अपने श्रावक चिह्न को चरितार्थ कर ले तो उसके जीवन में समीचीनता स्वयं प्रकट हो जायेगी। श्रावक शब्द में तीन अक्षर हैं – “श्र”, “व”, “क”। “श्र” का अर्थ होता है “श्रद्धा”, “व” का अर्थ है “विवेक” और “क” का मतलब होता है “क्रिया”। श्रद्धा, विवेक और क्रिया से सम्पन्न होने पर ही किसी श्रावक का श्रावकपना चरितार्थ होता है। हर श्रावक को अपने जीवन को सार्थक करने के लिए सबसे पहले धर्म के प्रति, सच्चे देव-शास्त्र-गुरू के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा होनी चाहिए। उस श्रद्धा के अभाव में जीवन कभी कार्यकारी नहीं है। दूसरी बात अपने हिताहित का विवेक होना चाहिए, कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान होना चाहिए, सार-असार का भान होना चाहिए व आत्मा और अनात्मा की पहचान होनी चाहिए, जो उसके विवेक पर निर्भर करता है। तीसरी बात-कर्तव्यनिष्ठ क्रिया होना चाहिए। प्रत्येक श्रावक के लिए श्रावकोचित कर्तव्यों का निर्देश जो आगम में दिया गया है, उनका अपनी शक्ति व परिस्थिति के अनुरूप दृढ़ता से पालन करना चाहिए।
श्रावक की मूलभूत क्रिया में सबसे प्रारम्भ की भूमिका की बात है- कुलाचार का पालन, देव-शास्त्र-गुरू की पूजा-आराधना और व्यसन तथा बुराईयों का त्याग। ये प्राथमिक स्तर के श्रावक के जीवन की जरूरत है। कुलाचार के पालन का मतलब जैन कुल में जन्म लेने के उपरान्त जैसा एक जैन का आचरण होना चाहिए वैसा वह आचरण करें। जिन बातों को जैन कुल में वर्जित बताया गया है, उन बातों से दूर रहे। मद्य, माँस के सेवन से दूर रहें। प्रतिज्ञा पूर्वक अपने परिवार में शुद्ध आचरण की परिपाटी, अहिंसा व दया का दृढ़ता से पालन करें। देवशास्त्र गुरू की पूर्ण मन से आराधना करें क्योंकि वे ही हमारे तारणहार हैं, उनके बल पर ही जीवन का कल्याण किया जा सकता है और बुराईयों से अपने आप को बचायें।
फिर इसके बाद दूसरे चरण में अणुव्रतों का पालन करें, पहले अभ्यास रूप में, बाद में दृढ़ता से पालन करके आगे बढ़ें। फिर धीरे-धीरे अपने गृहस्थी के दायित्व को पूर्ण करते-करते जब ऐसा लगने लगे कि ‘घर परिवार में मेरी सीधी भागीदारी की आवश्यकता नहीं है और परिवार के लोग, बच्चे और बहुएँ इसको सम्भालने में समर्थ हैं’, तो अपने आप को धीरे-धीरे केन्द्रित करने की कोशिश करें और अध्यात्म के मार्ग में लगें। व्रत संयम के रास्ते पर आगे बढ़ें। अपनी साधना को प्रखर से प्रखर बनाने का प्रयास करें। और आगे चल कर सल्लेखना समाधिपूर्वक देह का परित्याग करके अपने जीवन को कृतार्थ करें। श्रावक के समीचीन धर्म का यही आधार है।
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