दान देते समय अपने भाव कैसे होने चाहिए? कोई मेरे पास दान लेने के लिए आता है उस वक्त मैं पूछूँ कि ‘पहले आप बताइए सर, आपने कितना दान लिखाया है?’ तो ऐसे भावों से मुझे पुण्य का बन्ध होता है या पाप का बन्ध होता है?
दान देते समय तो हर्ष का भाव होना चाहिये। हर्ष इस बात का कि आज दान का एक सत्कर्म करके मैंने अपने जीवन को पवित्र बनाया, मैंने अपने द्रव्य का सदुपयोग किया या यूँ कहें हमने अपने अन्दर का मैल धोया। दान देय मन हर्ष बिशेखे –हर्ष विभोर होकर दान दें।
अब रहा सवाल यह कि औरों ने कितना दिया? हमारी सामाजिक व्यवस्था बन गई कि लोग एक दूसरे को देख कर के दान देते हैं। सामने वाला यह पूछता है कि आपने कितना दिया, पहले यह बताओ? लोग ये लिस्ट लेते हैं, देख कर के दान देते हैं। ये तो प्रवृत्ति है, आप दान की बात तो जाने दो, एक भिखारी अगर बैठा होता है ना, उसकी झोली में कुछ गिरा हुआ होता तब तो आप उसमें गिराने की कोशिश करते हैं, खाली हो तो भिखारी को भी नहीं देते। इसलिए जो लिस्ट लेकर जाने वाले होते हैं वे ५-७ नाम पहले ऊपर लिखते हैं, एक अनुकरण देख करके अनुदान देते हैं।
दूसरे को देख कर दान देने वाले का पुण्य उतना प्रगाढ़ नहीं होता जितना उसका, जो दान का प्रसंग प्राप्त होते ही उत्साहित मन से दान करता है। मैं आपसे कहूंगा, दान देने की हमेशा भावना भाना चाहिए। गृहीन् दानीन् शोभते– गृहस्थ की शोभा दान से होती है। जब भी योग्य अवसर आये, प्रसंग आए, अपनी शक्ति और सामर्थ्य को छिपाए बिना, न उसका उल्लंघन करना, न छिपाना, दान देने में कोई संकोच नहीं करना। दूसरों की तुलना करके दान दोगे तो तुम्हारा पुण्य थोड़ा क्षीण होगा और अपनी शक्ति की सीमा को पहचानते हुए खुद आगे होकर दान दोगे तो तुम्हारे पुण्य की कोई सीमा नहीं होगी इसलिए हमेशा जब भी दान देने का प्रसंग आये पूर्ण उल्लास और उमंग के साथ दान देना चाहिये।
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