‘खोए हुए तो हम हैं और ढूंढ रहे हैं हम भगवान को!’ महाराज जी! हमें अपने आप से मिलाने के लिए गुरु का बड़ा रोल होता है हमारे जीवन में। आपने प्रवचन में कहा था कि – ‘गुरु क्यों और कौन हो?’ तो हमें अपने आप से मिलाने के लिए हमारा गुरु कौन होना चाहिए और कैसा होना चाहिए?
पहले तो आपने जो कहा कि ‘खोए हुए तो हम हैं पर हम खोज रहे हैं भगवान को’ तो उसके जवाब में मैं कहूँगा कि
तुम्हारा नाम लेने से मुझे सब जान जाते हैं, तुम्हारा नाम लेने से मुझे सब जान जाते हैं,
मैं वो खोई हुई चीज हूँ जिसका कि पता तुम हो।
जो मूल सवाल है कि गुरु कौन हो और गुरु कैसा हो? बस एक पंक्ति में कहूँ तो ये कह सकता हूँ जिसने आध्यात्मिकता को आत्मसात कर लिया और जो तुम्हें ऊपर उठाने में समर्थ हो, वो गुरु है। शास्त्र की भाषा में अगर कहूँ तो
विषयसा: वशातीतो निरारम्भो परिग्रह, ज्ञान ध्यान तपोरत: तपस्विन: प्रशस्यते
जो विषय और उसकी आसक्ति रहित है, आरम्भ परिग्रह से रहित है, ज्ञान-ध्यान-तप में लीन है वह गुरु है और उसका स्वभाव उदार होना चाहिए। गुरु का विश्लेषण करो तो ‘ग उ र उ’ चार वर्ण हैं। बस ये चार वर्णों को ध्यान रख लो वो गुरु है। गुरु वह है जो गम्भीर हो, गुरु वह है जो उदार हो, गुरु वह है जो रहस्य का उ यानी उद्घाटक हो जो गम्भीर, उदार और रहस्य उद्घाटक हो वही गुरु कहलाने के अधिकारी हैं।
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