अपराध करने से कैसे बचें कि बाद में पछताना न पड़े?

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शंका

पहले अपराध करते हैं फिर पछताते हैं कि मेरे से ऐसा क्यों हुआ। फिर समता में कैसे आयें और हम उस प्रज्ञापराध से बचें?

समाधान

अपराध करने के बाद पछताने से अपराध से बचने की बात बहुत सार्थक है। अपराध करने से पूर्व अपराध से होने वाली सावधानी ही वास्तविक साधना है। जब भी आप स्वस्थ स्थिति में हो तो ऐसी भावना भाएँ कि मेरे द्वारा कोई ऐसा गलत कार्य न हो। 

आपने प्रज्ञापराध शब्द का प्रयोग किया, ये भी बड़ी प्रज्ञा से किया है। मेरी समझ में इनका भाव मानसिक स्तर के पाप से ज्यादा होता है। जान बूझकर जो अपराध होता है और मन से जो अपराध होता है वह हमारे संस्कारवश होता है। न चाहते हुए भी हो जाता है। उसको जीतने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि हम बार-बार भावना भाएँ। पापों से बचने का भाव जगाएँ। 

आचार्य उमास्वामी ने हमें पाप से बचने के सूत्र बताए हैं। उन्होंने कहा कि

हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम्।

दुःखमेव वा।

जगत्काय-स्वभावौ वा संवेग संवेगवैराग्यार्थम्।

पापोत्तर व लोकोत्तर दोनों को बाधा देखकर पाप व पापवृत्ति इहि लोक और परलोक को बिगाड़ते हैं। ऐसी भावना भाएँ। संसार, शरीर और भोगों की नश्वरता का चिंतन करें और पापों को दुखमय मानकर चलें तो हमारे अन्दर अपराध होने की भावना बंद हो जायेगी और आप जिस बात से बचना चाहते है उसका रास्ता प्रशस्त हो जायेगा।

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