मैंने कई मुनिराजों के प्रवचन सुने हैं। प्रवचन में वे ऐसी बातें बोलते हैं जो नकारात्मक लगती है। नकारात्मक जैसे कि एक बेटे ने अपने पिताजी के साथ ऐसे किया या बहन ने अपनी भाभी के साथ ऐसा किया, बहु ने सास के साथ ऐसा किया। क्या सारी दुनिया, सारा समाज इतना विकृत हो गया है? 5-10 प्रतिशत लोग ऐसे हो सकते हैं। मैं मानता हूँ कि नकारात्मक उदाहरण की अपेक्षा सकारात्मक उदाहरण ज़्यादा प्रभावशाली होते हैं, तो क्या सकारात्मक उदाहरण देना ज़्यादा उचित नहीं है?
आलोक जैन, बापू नगर
हो सकता है आपको सुनने में ऐसा लगा हो कि गुरुओं के द्वारा नकारात्मक बातें ज़्यादा कही जाती हैं। एक बात बताऊँ, हमेशा चोट मर्म पर करनी चाहिए। आप लोगों को नकारात्मक बातें जल्दी समझ में आती है। सकारात्मक बात करने से आपकी आँखें कम भीगती हैं और जब हृदय को उद्वेलित करने वाली बातें होती हैं, तो आपका मन रोना शुरू कर देता है, व्यक्ति भीगना चाहिए। उपदेश का उद्देश्य व्यक्ति के हृदय को परिवर्तित करने का होता है। यद्यपि एकांगी बात नहीं होनी चाहिए, दोनों तरह की बातें करनी चाहिए, लेकिन जब कभी भी आप बात करें नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलुओं को रखना चाहिए। कोशिश दोनों चीजों को प्रस्तुत करने की होना चाहिए। नकारात्मकता से भरे व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली सकारात्मकता को हमें ढंग से रखना चाहिए ताकि लोगों को यह समझ में आए कि हम अपने जीवन में कैसा बदलाव घटित कर सकते हैं। सम्भावनाएँ अनन्त हैं और उन सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति क्रमशः हो सकती है। इसलिए यदि कहीं कोई नकारात्मक बात कही जाती है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम पूरी समाज को इस तरीके से देख रहे हैं लेकिन यह समझना चाहिए कि यह समाज का एक गंदा पक्ष है, इसे हमें साफ करना है। और अपने आपको इससे बचा कर चलना है।
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